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निर्विकृतिक-सूत्र
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ही अभिग्रह का पालन कर सकते हैं । अतएव साधारण साधकों को प्रतिसाहस के फेर में पड़ने से बचना चाहिए | जैन इतिहास के विद्यार्थी जानते हैं कि एक साधु ने सिंहकेसरिया मोदकों का अभिग्रह कर लिया था और जब वह अभिग्रह पूर्ण न हुआ तो पागल होकर दिनरात का कुछ भी विचार न रखकर पात्र लिए घूमने लगा । कल्पसूत्र की टीकाओं में उक्त उदाहरण आता है । अतः श्रभिग्रह करते समय अपनी शक्ति और शक्ति का विचार अवश्य कर लेना चाहिए ।
( १० ) 'निर्विकृतिक-सूत्र
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विगइओर पच्चक्खामि, अन्नत्थणाभोगेणं, सहसा - गारेणं, लेवालेवेणं, गिहत्थसंसिड, उक्खित्तविवेगेणं, पडुच्चमक्खि एवं, पारिट्ठावणियागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिबत्तियागारेणं, वोसिरामि ।
१ प्राकृत भाषा का मूल शब्द 'निव्विगइयं' है । आचार्य सिद्धसेन ने इसके दो संस्कृतरूपान्तर किए हैं— निर्विकृतिक और निर्विगतिक । श्राचार्य श्री घृतादि को विकृतिहेतुक होने से विकृति और विगतिहेतुक होने से विगति भी कहते हैं । जो प्रत्याख्यान विकृति से रहित हो वह निर्विकृतिक एवं निर्विगतिक कहलाता है । 'तत्र मनसो विकृतिहेतुत्वाद् विगतिहेतुत्वाद् वा विकृतयो विगतयो वा, निर्गता विकृतयो विगतयो ar यत्र तन्निवि कृतिकं निर्विगतिकं वा प्रत्याख्याति । – प्रवचन सारोद्वार वृत्ति प्रत्याख्यान द्वार ।
२ प्रवचन सारोद्धार में 'विगइयो' के स्थान में 'निव्विगइयं ' पाठ है ।
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