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श्राचाम्ल-सूत्र
३२७.
नहीं होता । परन्तु यदि विकृति द्रव हो, उठाने की स्थिति में न हो तो वह वस्तु ग्राह्य नहीं है । ऐसी वस्तु का भोजन करने से श्राचाम्ल व्रत का भंग माना जाता है । 'शुष्कौदनादिभक्ते पतितपूर्व स्वाचामाम्लप्रत्याख्यानवतामयोग्यस्य श्रवविकृत्यादिद्रव्यस्य उत्क्षिप्तस्यउधृतस्य विवेको -- निःशेषतया त्यागः उत्चिप्तविवेकस्तस्मादन्यत्र, भोकव्यद्रव्यस्याभोक्रव्यद्रव्य स्पर्शेनाऽपि न भङ्ग इत्यर्थः । यत्तत्क्षेप्तु ं न शक्यते तस्य भोजने भङ्ग एव । " --प्रवचन सारोद्धार वृत्ति ।
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( ३ ) गृहस्थसंसृष्ट-घृत अथवा तैल यादि विकृति से छोंके हुए कुल्माष ग्रादि लेना, गृहस्थसंसृष्ट ग्रागार है । अथवा गृहस्थ ने अपने लिए जिस सेटी आदि खाद्य वस्तु पर घृतादि लगा रक्खा हो, वह ग्रहण करना भी गृहस्थसंसृष्ट ग्रागार है । उक्त ग्रागार में यह ध्यान में रखने की बात है कि यदि विकृति का अंश स्वल्प हो, तब तो व्रत भंग नहीं होता । परन्तु विकृति यदि अधिक मात्रा में हो तो वह ग्रहण करलेने से व्रत भंग का निमित्त बनती है ।
प्रवचन सारोद्धार वृत्ति के रचयिता श्राचार्य सिद्धसेन, घुतादि विकृति से लिख पात्र के द्वारा आचाम्लयोग्य वस्तु के ग्रहण करने को गृहस्थसंसृष्ट कहते हैं । 'विकृत्या संसृष्टभाजनेन हि दीयमानं भक्रमकल्पनीय द्रव्यमिश्र भवति तद् भुञ्जानत्यापि न भङ्ग इत्यर्थः, यदि अकल्पयद्रव्यरसो बहु न ज्ञायते ।"- -प्रवचन सारोद्धार वृत्ति, प्रत्याख्यान द्वार 1
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कुछ आचार्यों की मान्यता है कि लेपाले, उत्क्षिप्तविवेक, गृहस्थऔर पारिठापनिकागार- ये चार आगार साधु के लिए ही हैं, गृहस्थ के लिए नहीं ।
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