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पौरुपी सूत्र
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घटते घटते अपने शरीर प्रमाण लंत्री रह जाती है । इसी भाव को लेकर पौरुषी शब्द प्रहर परिमित काल विशेष के अर्थ में लक्षणा के द्वारा रूढ़ हो गया है ।
साधक कितना ही सावधान हो; परन्तु ग्राखिर वह एक साधारण छद्मस्थ व्यक्ति है । अतः सावधान होते हुए भी बहुत बार व्रत पालन में भूल हो जाया करती है । प्रत्याख्यान की स्मृति न रहने से अथवा अन्य किसी विशेष कारण से व्रतपालन में बाधा होने की संभावना है । ऐसी स्थिति में व्रत खण्डित न हो, इस बात को ध्यान में रखकर प्रत्येक प्रत्याख्यान में पहले से ही संभावित दोषों का श्रागार, प्रतिज्ञा लेते समय ही रख लिया जाता है । पोरिसी में इस प्रकार के छह ग्रागार हैं :( १ ) अनाभोग - प्रत्याख्यान की विस्मृति हो जाने से भोजन कर
लेना ।
( २ ) सहसाकार - - अकस्मात् जल आदि का मुख में चले जाना । (३) प्रच्छन्नकाल - बादल अथवा बाँधी आदि के कारण सूर्य के ढँक जाने से पोरिसी पूर्ण हो जाने की भ्रान्ति हो जाना ।
( ४ ) दिशा मोह - पूर्व को पश्चिम समझ कर पोरिसी न आने पर भी सूर्य के ऊँचा चढ़ आने की भ्रान्ति से अशनादि सेवन कर लेना ।
(२) साधुवचन - 'पोरिसी या गई' इस प्रकार किसी प्राप्त पुरुष के कहने पर विना पोरिसी आए ही पोरिसी पार लेना ।
( ६ ) सर्व समाधिप्रत्ययाकार - किसी आकस्मिक शूल यादि तीव्र रोग की उपशान्ति के लिए औषधि आदि ग्रहण कर लेना ।
‘सर्व समाधि प्रत्ययाकार' एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण श्रागार है 1 जैन संस्कृति का प्राण स्याद्वाद है और वह प्रस्तुत श्रागार पर महत्वपूर्ण प्रकाश डालता है । तप बड़ा है या जीवन ? यह प्रश्न है, जो दार्शनिक क्षेत्र में गंभीर विचार चर्चा का क्षेत्र रहा है। कुछ दार्शनिक तप को महत्त्व देते हैं तो कुछ जीवन को ? परन्तु जैन दर्शन
तप को भी महत्व
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