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पूर्वार्ध-सूत्र --"महत्तरा गारेहि-महल्ल पयोयणेहि, तेण भत्तट्ठो पचक्खातो, ताथे श्रायरिएहिं भएणति-अमुगं गामं गंतव्व । तेण निवेदितं-जथा मम अज अभट्ठोत्त । जति ताव समत्थो करेतु जातु य । न तरति अएणो भराद्वितो अभत्तट्टितो वा जो तरति सो वच्चतु । नत्थि अण्णो तस्स वा कन्जस्स समथो ताथे चेव अभराट्ठियस्स गुरू विसजयन्ति । एरिस्स तं जेमंतस्स प्रणभिलासत्स अभाट्टितणिजरा जा सा से भवति गुरुणिोएण।"
प्राचार्य जिनदास आवश्यक चूर्णिं के प्रत्याख्यानाधिकार में प्रस्तुत महत्तरागार पर लिखते हैं-'एवं किर तस्स तं जेमंतस्स वि अण भिलासस्स श्रभाट्ठियस्स गिजरा जा सच्चेव पता भवति गुरुनिश्रोएणं ।'
दोनों ही प्राचार्यों का यह कथन है कि यदि तपस्वी साधक को किसी विशेष सेवा कार्य के लिए उपवास प्रादि अभक्तार्थ में भी भोजन कर लेना पड़े तो कोई दोष नहीं होता है । अपितु भोजन करते हुए भी उपवास जैसी ही निर्जरा होती है । क्योंकि भोजन करते हुए भी उसकी भोजन में अभिलाषा नहीं है !
महत्तराकार, नमस्कारिका और पौरुषी में नहीं होता है | क्योंकि उनका काल अल्म है, अतः वह पूर्ण करने के बाद भी निर्दिष्ट सेवा कार्य किया जा सकता है। यच्चात्रैव महत्तराऽऽकार ज्याभिधानं न नमस्कारसहितादौ तत्र कालस्याल्पत्वं, अन्यत्र तु महवं कारण मिति वृद्धा व्याचक्षते ।' -प्रवचन सारोद्धार वृत्ति ।
पूर्वार्धं प्रत्याख्यान के समान ही अवार्ध प्रत्याख्यान भी होता है। अपार्द्ध प्रत्याख्यान का अर्थ है-तीन पहर दिन चढ़े तक अाहार ग्रहण न करना । अपार्द्ध प्रत्याख्यान ग्रहण करते समय 'पुरिमड्द' के स्थान में 'अवड्द' पाठ बोलना चाहिए । शेष पाठ दोनों प्रत्याख्यानों का समान है।
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