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श्रमण-सूत्र
व्यक्ति के आ जाने पर प्रस्तुत भोजन को बीच में ही छोड़कर एकान्त में जाकर पुनः भोजन करना हो तो कोई दोष नहीं होता । 'गृहस्थस्यापि येन दृष्टं भोजनं न जीर्यति तत्प्रमुखः सागारिको ज्ञातव्यः ।" -प्रवचनसारोद्धार वृत्ति ।
(२) श्राकुञ्चनप्रसारण - भोजन करते समय सुन्न पड़ जाने आदि के कारण से हाथ, पैर आदि अंगों का सिकोड़ना या फैलाना । उपलक्षण से ग्राकुञ्चन प्रसारण में शरीर का आगे-पीछे हिलाना-डुलाना भी आ जाता है ।
(३) गुर्वभ्युत्थान- गुरुजन एवं किसी अतिथि विशेष के श्राने पर उनका विनय सत्कार करने के लिए उठना, खड़े होना ।
प्रस्तुत श्रागार का यह भाव है कि गुरुजन एवं अतिथिजन के आने पर अवश्य ही उठ कर खड़ा हो जाना चाहिए । उस समय यह भ्रान्ति नहीं रखनी चाहिए कि 'एकासन में उठकर खड़े होने का विधान नहीं है । अतः उठने और खड़े होने से व्रतभंग के कारण मुझे दोप लगेगा ।" गुरुजनों के लिए उठने में कोई दोष नहीं है, इस से व्रतभंग नहीं होता, प्रत्युत विनय तपकी श्राराधना होती है । आचार्य सिद्धसेन लिखते हैं गुरूणामभ्युत्थानात्वादवश्यं भुञ्जानेनाऽप्युस्थानं कर्तव्यमिति न तत्र प्रत्याख्यान – भङ्गः । - प्रवचन सारोद्धार वृत्ति ।
जैनधर्म विनय का धर्म है। जैनधर्म का मूल ही विनय है । विश जिणसासणमूर्ल' की भावना जैन धर्म की प्रत्येक छोटी बड़ी साधना में रही हुई है । जैन धर्म की सभ्यता एवं शिष्टाचार सम्बन्धी
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महत्ता के
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तो ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि सभी गृहस्थ एक जैसे हैं, तो किसी के सामने भी भोजन नहीं करना है । अव रहा गृहस्थ, वह भी क्रूर दृष्टि वाले व्यक्ति के आने पर भोजन छोड़कर फिर भले वह क्रूर दृष्टि ब्राह्मण हो, क्षत्रिय हो, में जात-पाँत के नाम पर उठकर जाने का विधान नहीं है ।
अन्यत्र जा सकता है,
कोई भी हो । एकाशन
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