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एकाशन-सूत्र
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लिए प्रस्तुत आगार ही पर्याप्त है। मुनि और गृहस्थ दोनों के लिए ही यह मुभक्ति एवं अतिथि भक्ति का उच्च आदर्श अनुकरणीय है ।
(४) पारिष्ठापनिकाकार जैन मुनि के लिए विधान है कि वह अपनी श्रावश्यक क्षुधापूर्त्यर्थं परिमित मात्रा में ही आहार लाए, अधिक नहीं । तथापि कभी भ्रान्तिवश यदि किसी मुनि के पास आहार अधिक ना जाय और वह परठना डालना पड़े तो उस आहार को गुरुदेव की आज्ञा से तपस्वी मुनि को ग्रहण कर लेना चाहिए । गृहस्थ के यहाँ से आहार लाना और उसे डालना, यह भोजन का अपव्यय है । भोजन समाज र राष्ट्र का जीवन है, अतः भोजन का अपव्यय सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन का अपव्यय है ।
आचार्य सिद्धसेन परिष्ठापन में दोष मानते हैं और उसके ग्रहण कर लेने में गुण | "परिस्थापनं सर्वथा त्यजनं प्रयोजनमस्य पारिष्ठापनिक, तदेव कारस्तस्मादन्यत्र तत्र हि त्यज्यमाने बहुदोषसम्भवरश्रीयमाणे चागमिकन्यायेन गुणसम्भवाद् गुर्वाज्ञया पुनर्भु आनस्थापि व भङ्गः ।" - प्रवचन सारोद्धार वृत्ति |
( ५ )
एकस्थान - सूत्र
एक्कास एगद्वाणं पच्चक्खामि, तिविहं पि आहारयसरी, खाइमं साइमं ।
अन्नत्थ- णाभोगेणं, सहसागारेणं, सागारियागारेणं, गुरुप्रभुट्टा, पारिट्ठावणियागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेण वोसिरामि ।
महत्तरामारेणं,
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