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श्रमण-सूत्र
भावार्थ
एकाशनरूप एकस्थान का व्रत ग्रहण करता हूँ; फलतः अशन, स्वादिम और स्वादिम तीनों आहार का प्रत्याख्यान करता हूँ ।
अनाभोग, सहसाकार, सागारिकाकार, गुर्वभ्युत्थान, पारिष्ठापनिकाकार, महत्तराकार और सर्वसमाधि- प्रत्ययाकार - उक्त सात श्रागारों के सिवा पूर्णतया श्राहार का त्याग करता हूँ ।
विवेचन
यह एकस्थान प्रत्याख्यान का सूत्र है । एक स्थानान्तर्गत 'स्थान' 'शब्द 'स्थिति' का वाचक है । अतः एक स्थान का फलितार्थ है- 'दाहिने हाथ एवं मुख के अतिरिक्त शेष सब अंगों को हिलाए विना दिन में एक ही आसन से और एक ही बार भोजन करना । अर्थात् भोजन प्रारंभ करते समय जो स्थिति हो, जो अंगविन्यास हो, जो ग्रासन हो, उसी स्थिति, अंगविन्यास एवं आसन से बैठे रहना चाहिए ।"
श्राचार्य जिनदास ने आवश्यक चूर्णि में एक स्थान की यही परिभाषा की है - 'एकट्ठाण े जं जथा अंगुवंगं ठवियं तहेव समुदिसितव्वं, आगारे से श्रापसारण नत्थि, सेसा सत्त तहेव ।'
श्राचार्य सिद्धसेन भी प्रवचन सारोद्वार की वृत्ति में ऐसा ही लिखते हैं' एक अद्वितीयं स्थानं-अङ्गविन्यासरूपं यत्र तदेकस्थान प्रत्याख्यानं तद् यथा भोजनकालेऽङ्गोपाङगं स्थापितं तस्मिंस्तथा स्थित एक भोकव्यम् ।' प्रवचन सारोद्धार वृत्ति /
एक स्थान की अन्य सत्र विधि 'एगासरण' के समान है । केवल हाथ, पैर आदि के आकुंचन-प्रसारण का आगार नहीं रहता । इसी लिए प्रस्तुत पाठ में 'उंटण पसारणेणं' का उच्चारण नहीं किया जाता । 'उंटसारण नत्थि, सेसं जहा एक्कासणाए ।' हरिभद्रीय श्राव
श्यक वृत्ति ।
प्रश्न है कि जब एक स्थान प्रत्याख्यान में 'आउट पसारखा' का
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