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पौरुषी सूत्र
३११ समाधि का भी विशेष ध्यान रखता है । इस सम्बन्ध में प्राचार्य सिद्धसेन का अभिप्राय मनन करने योग्य है :
-"कृतपौरुषीप्रत्या यानस्य सहसा सञ्जाततीव्रशूलादिदुःखतया समुत्पन्नयोरातरौद्रध्यानयोः सर्वधा निरासः सर्वसमाधिः, स एव भाकार:-प्रत्या ज्यानापवादः सर्वसमाविप्रत्यय कारः । पौरुष्याम पूर्णागामप्यकस्मात् शूलादिव्यथायां समुत्पन्नायां तदुपशमनायौषधपथ्यादिके भुञानस्य न प्रत्या' यानभा इति भावः । वैद्यादिर्वा कृतपौरुषीप्रत्याख्यानोऽन्यस्यातुर त्य समाधिनिमित्त यदाऽपूर्णायामपि पौरुष्यां भुक क्ते तदा न भङ्गः । अर्धभुक्ते त्वातुरस्य समाशे मरण वोत्पन्ने सति तथैव भोजनत्यागः ।".--प्रवचनसारोद्धार वृत्ति । ___ अाचार्य जिनदास ने भी आवश्यक चूणि' में ऐसा ही कहा है'समाधी णाम तेण य पोरुसी पच्चक्खाता, श्रासुक्कारियं च दुक्खं उप्पन्नं तस्स अन्नरस वा, ते किंचि कायव्वं तस्स, ताहे परो विज्जे (हवे) जा तस्स वा पसमणणिमित्त पाराविजति प्रोसहं वा दिजति ।
___ यही पाठ अपनी यावश्यक वृत्ति में प्राचार्य हरिभद्र ने उद्धृत किया है।
प्राचार्य तिलक लिखते हैं----'तीव्रशूलादिना विह्वलस्य समाधिनिमित्तमौषधपथ्यादिप्रत्ययः कारण स एव श्राकारः ।'
प्राचार्य नमि भी कहते हैं-'समाधिः स्वास्थ्यं तत्प्रत्ययाकारण, यथा कस्यचित् प्रत्यार यातुरन्यस्य वा किमप्यातुरं दुःखमुत्पन्नं तदुपशमहेतोः पार्यते ।
प्रच्छन्नकाल, दिशामोह अोर साधुवचन उक्त तीनों प्रागारों का यह अभिप्राय है कि-भ्रान्ति के कारण पौरुषी पूर्ण न होने पर भी पूर्ण समझ कर भोजन कर लिया जाय तो कोई दोष नहीं होता। यदि भोजन करते समय यह मालूम हो जाय कि अभी पौरुषी पूर्ण नहीं हुई है तो
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