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प्रत्याख्यान-सूत्र
३०५
नमस्कारिका में केवल दो ही आकार हैं-अनाभोग, और महसाकार । ( १ ) अनाभोग का अर्थ है अत्यन्त विस्मृति । प्रत्याख्यान लेने की बात सर्वथा भूल जाय और उस समय अनवधानता वशं कुछ खा पी लिया जाय तो वह अनाभोग आगार की मर्यादा में रहता है ।
( २ ) दूसरा आगार सहसाकार है । इसका अर्थ है – मेघ बरसने पर अथवा दही आदि मथते समय अचानक ही जल या छाछ यदि का छींटा मुख में चला जाय ।
भोग और सहसाकार दोनों ही ग्रागारों के सम्बन्ध में यह बात है कि जब तक पता न चले, तबतक तो व्रत भंग नहीं होता । परन्तु पता चल जाने पर भी यदि कोई मुख का ग्रास थूके नहीं, आगे खाना बंद नहीं करे तो व्रत भंग हो जाता है । अस्तु, साधक का कर्तव्य है कि ज्यों ही पता चले, त्यों ही भोजन बंद कर दे और जो कुछ मुख में हो वह सब भी यतना के साथ थूक दे ।
एक प्रश्न है ! मूल पाठ में तो केवल नमस्कार सहित ही शब्द है, काल का कुछ भी उल्लेख नहीं है । फिर यह दो घड़ी की कालमर्यादा किस आधार पर प्रचलित है ?
प्रश्न बहुत सुन्दर है । श्राचार्य सिद्धसेन ने इसका अच्छा उत्तर दिया है । प्रवचन सारोद्धार की वृत्ति में उन्होंने नमस्कारसहित को मुहूर्त का विशेषण मानते हुए कहा है- ' सहित शब्देन मुहूर्तस्य विशेषितत्वात्' । इसका भावार्थ यह है किं नमस्कार से सहित जो मुहूर्त, वह नमस्कार सहित कहलाता है । अर्थात् जिसके अन्त में नमस्कार क उच्चारण किया जाता है, वह मुहूर्त । आप कहेंगे - मूल पाठ में तो कहीं इधर उधर मुहूर्त शब्द है नहीं; फिर विशेष्य के बिना विशेषण कैसा ? उत्तर में निवेदन है कि - नमस्कारिका का पाठ श्रद्धा प्रत्याख्यान में है । श्रतः काल की मर्यादा अवश्य होनी चाहिए । यदि काल की मर्यादा ही न हो तो फिर यह श्रद्धा प्रत्याख्यान कैसा ? नमस्कारसहित का पाठ पौरुपी के पाठ से पहले है; अतः यह स्पष्ट ही है कि उसका काल-मान
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