________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
३.०४
श्रमण-सूत्र
में अन्तर्भूत हैं। कुछ प्राचार्य मिष्टान्न को अशन में ग्रहण करते हैं और कुछ खादिम में, यह ध्यान में रहे ।
(४) स्वादिम-सुपारी, लौंग, इलायची आदि मुखवास स्वादिम माना जाता है। इस आहार में उदरपूर्ति की दृष्टि न होकर मुख्यतया मुख के स्वाद की ही दृष्टि होती है । संयमी साधक प्रस्तुत श्राहार का ग्रहण स्वाद के लिए नहीं, प्रत्युत मुख की स्वच्छता के लिए करता है। ____ संस्कृत का आकार ही प्राकृत भाषा में प्रागार है। प्राकार का अर्थ-अपवाद माना जाता है। अपवाद का अर्थ है कि यदि किसी विशेष स्थिति में त्याग की हुई वस्तु सेवन भी करली जाय तो भी प्रत्याख्यान का भंग नहीं होता। अतएव श्राचार्य हेमचन्द्र योगशास्त्र के तीसरे प्रकाश की वृत्ति में लिखते हैं --'प्राक्रियते विधीयते प्रत्याख्यानभंगपरिहारार्थमित्याकार:'.---'प्रत्याख्यानं च अपवादरूपाकार सहितं कर्तव्यम् , अन्यथा तु भंगः स्यात् ।'
१ श्रा-मर्यादया मर्यादाख्यापनार्थमित्यर्थः क्रियन्ते विधीयन्ते इत्याकाराः'-प्रवचन सारोद्धार वृत्ति । प्रत्याख्यानद्वार ।
'श्राकारोहि नाम प्रत्याख्यानापवादहेतुः ।-हरिभद्रीयः श्रावश्यक सूत्र वृत्ति, प्रत्याख्यान आवश्यक ।
जैन-धर्म विवेक.का धर्म है। अतः यहाँ प्रत्याख्यान आदि करते समय भी विवेक का पूरा ध्यान रखा जाता है। साधक दुर्बल एवं अल्पज्ञ प्राणी है। अतः उसके समक्ष अज्ञानता एवं अशक्तता श्रादि के कारण कभी वह विकट प्रसंग पा सकता है, जो उसकी कल्पना से बाहर हो । यदि पहले से ही उस स्थिति का अपवाद नारकरखा जाय तो व्रत भंग होने की संभावना रहती है। यही कारण है कि प्रस्तुत प्रत्याख्यान सूत्र में पहले से ही उस विशेष स्थिति की छूट 'प्रतिज्ञा-पाठ में रक्खी गई है, ताकि साधक का व्रत-भंगः न होने पाए। यह है पहले से ही भविष्य को ध्यान में रख कर चलने की दूरदर्शितारूप निवेक वृत्ति ।।
For Private And Personal