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श्रमण-सूत्र
रजोहरण, मुखवस्त्रिका और चोलपट्ट के अतिरिक्त और कुछ भी अपने पास नहीं रखता है एवं दोनों हाथों को मस्तक से लगाकर वन्दन करने की मुद्रा में गुरुदेव के समक्ष खड़ा होता है । तः मुनि दीक्षा ग्रहण करने के काल की मुद्रा भी यथाजात मुद्रा कहलाती है ।
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यथाजात - मुद्रा के उपर्युक्त स्वरूप के लिए, आवश्यक सूत्र की वृत्ति और प्रवचन सारोद्वार की वृत्ति दृव्य है | श्रावश्यक सूत्र की अपनी शिष्यहिता वृत्ति में आचार्य हरिभद्र लिखते हैं- 'यथाजातं श्रमणत्वमाश्रित्य योनिनिष्क्रमणं च तत्र रजोहरण-मुखवस्त्रिका चोलपट्टमात्रया - श्रमशो जातः, रचितकरपुटस्तु योन्या निर्गतः, एवं भूत एव वन्दते ।'
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यह पच्चीस श्रावश्यकों का वर्णन हरिभद्रीय आवश्यक वृत्ति और प्रवचन सारोद्धार वृत्ति के आधार पर किया गया है । इस सम्बन्ध में जैनजगत के महान् ज्योतिर्धर स्व० जैनाचार्य पूज्य श्री जवाहरलाल जी महाराज के हस्तलिखित पत्र से भी बहुत कुछ जानकारी प्राप्त की गई है; इसके लिए लेखक श्रद्धय जैनाचार्य पूज्य श्री गणेशीलाल जी महाराज का कृतज्ञ है ।
छः स्थानक
प्रस्तुत 'खमासमणो' सूत्र में छः स्थानक माने जाते हैं । " इच्छामि १ खमासमणो ! २ वं' दिउ ३ जाव(जाए४ निसीहियाए" के द्वारा वन्दन करने की इच्छा निवेदन की जाती है, : यह शिष्य की ओर का पंचपद रूप प्रथम 'इच्छा निवेदन' स्थानक है ।
इच्छानिवेदन के उत्तर में गुरुदेव भी 'त्रिविधेन' अथवा 'छंदसा' कहते हैं, यह गुरुदेव की ओर का उत्तर रूप प्रथम स्थानक है ।
इसके बाद शिष्य 'अणुजाराह१ मे २ मिउभाहं३' कह कर श्रवग्रह में प्रवेश करने की आज्ञा माँगता है, यह शिष्य की ओर का त्रिपदात्मक आज्ञा याचना रूप दूसरा स्थानक है ।
१ प्राचीनकाल में इसी मुद्रा में निदीक्षा दी जाती थी ।
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