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श्रमण सूत्र का भली भाँति आचरण किया है; अतः विश्वास रखिए, मैं पवित्र हूँ, और पवित्र होने के नाते अापके पवित्र चरण कमलों को स्पर्श करने का अधिकारी हूँ।"
-"निसीहि नाम सरीरगं वसही थंडिलं च भएणति । जतो निसीहिता नाम श्रालयो वसही थंडिलं च । सरीरं जीवस्स प्रालयोत्ति। तथा पडिसिद्धनिसेवणनियत्तस्स किरिया निसीहिया ताए । ....."विसक्रया तन्वा, कहं ? विपडिसिद्धनिसेहकिरियाए य, अप्परोंगे मम सरीरं, पडिसिद्धपावकम्मो य होतो तुमं वंदितु इच्छामित्ति यावत् ।"
-प्राचार्य जिनदास कृत अावश्यक चूणि अवग्रह
जहाँ गुरुदेव विराजमान होते हैं, वहाँ गुरुदेव के चारों ओर चारों दिशाओं में आत्म-प्रमाण अर्थात् 'शरीर-प्रमाण साढ़े तीन हाथ का क्षेत्रावग्रह होता है । इस अवग्रह में गुरुदेव की प्राज्ञा लिए विना प्रवेश करना निषिद्ध है । गुरुदेव की गौरव-मर्यादा के लिए शिष्य को गुरुदेव से साढ़े तीन हाथ दूर अवग्रह से बाहर खड़ा रहना चाहिए । यदि कभी वन्दना एवं वाचना श्रादि आवश्यक कार्य के लिए गुरुदेव के समीप तक जाना हो तो प्रथम अाज्ञा लेकर पुनः अवग्रह में प्रवेश करना चाहिए।
अवग्रह की व्याख्या करते हुए श्राचार्य हरिभद्र आवश्यक वृत्ति में . लिखते हैं-'चतुर्दिशमिहाचार्यस्य प्रात्म-प्रमाणं क्षेत्रमवग्रहः । तमनुज्ञां विहाय प्रवेष्टुं न कल्पते ।। __ प्रवचनसारोद्धार के वन्दनक द्वार में प्राचार्य नेमिचन्द्र भी यही कहते हैं :
१ साढ़े तीन हाथ परिमाण अवग्रह इसलिए है कि गुरुदेव अपनी इच्छानुसार उठ-बैठ सके, स्वाध्याय ध्यान कर सके, आवश्यकता हो तो शयन भी कर सके।
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