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द्वादशावर्त गुरुवन्दन-सूत्र
२२३ का है। अतः काय के उपलक्षण से मन और वचन का अर्पण भी समझ लेना चाहिए। अल्पक्लान्त
प्रस्तुत सूत्र में 'अप्पकिलंता बहुसुभेण....' अंशगत जो अल्पक्लान्त शब्द है । आचार्य हरिभद्र और नमि ने इसका अर्थ 'अल्पं - स्तोक क्लान्तं = क्रमो येषां ते अल्प क्लान्ताः' कहकर 'अल्प पीड़ा वाला' किया है। वर्तमान कालीन कुछ विद्वान् भी इसी पथ के अनुयायी हैं । परन्तु मुझे यह अर्थ ठीक नहीं अँचता। यहाँ अल्प पीड़ा का, थोड़ी-सी तकलीफ का क्या भाव है ? क्या गुरुदेव को थोड़ी-सी पीड़ा का रहना श्रावश्यक है ? नहीं, यह अर्थ उचित नहीं मालूम होता। अल्म शब्द स्तोक वाचक ही नहीं, अभाव वाचक भी है। उत्तराध्ययन सूत्र के प्रथम विनयाध्ययन में एक गाथा आती है.--'अप्पपाणऽप्पबीयम्मि'.... ६५ । इसका अर्थ है-अल्पप्राण और अल्पबीज वाले स्थान में साधु को भोजन करना चाहिए। क्या आप यहाँ भी अल्प-प्राण और अल्पबीज का अर्थ थोड़े प्राणी और थोड़े बीज वाले स्थान में भोजन करना ही करेंगे ? तब तो अर्थ का अनर्थ ही होगा ? अतः यहाँ अल्म का अभाव अर्थ मान कर यह अर्थ किया जाता है कि साधु को प्राणी और बीजों से रहित स्थान में भोजन करना चाहिए । तभी वास्तविक अर्थ-संगति हो सकती है, अन्यथा नहीं। अस्तु, प्रस्तुत पाठ में भी अप्पकिलंता' का 'ग्लानि रहित'-'बाधारहित' अर्थ ही सगत प्रतीत होता है । बहुशुभेन
मूल में 'अप्पकिलंताणं बहुसुभेण भे दिवसो वइक्कतो' पाठ है । इसका अर्थ है-'भगवन् ! आपका यह दिन विघ्न-बाधाओं से रहित प्रभूत सुख में अर्थात् अत्यन्त अानन्द में व्यतीत हुया ?' यह सर्व प्रथम शरीर सम्बन्धी कुशल प्रश्न है ? जैन धर्म के सम्बन्ध में यह व्यर्थ ही
१ 'अल्प इति अभावे, स्तोके च'-अावश्यक चूणि ।
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