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द्वादशावर्त गुरुवन्दन सूत्र
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द्वेष, दुर्भाव, घृणा तथा अवज्ञा का होना, मनोदुष्कृता श्राशातना है । इसी प्रकार अभद्र वचन आदि से वाग्दुष्कृता तथा आसन्न गमनादि के निमित्त से कायदुष्कृता शातना होती है ।
क्रोधा
मूल में 'कोहा' शब्द है, जिसका तृतीया विभक्ति के रूप में 'कोहाए' प्रयोग किया गया है । 'कोहा' का संस्कृत रूपान्तर 'कोधा' होता है । क्रोधा का अर्थ क्रोध नहीं, अपितु क्रोधानुगता अर्थात् क्रोधती शातना से है । क्रोध के निमित्त से होने वाली आशातना क्रोधा अर्थात् क्रोधवती कहलाती है ।
'क्रोधा' का 'कोती' अर्थ कैसे होता है ? समाधान है कि अर्शादिगण प्राकृति गण माना जाता है, अतः क्रोधादि को अर्शादि गण में मान कर श्रच् प्रत्यय होने से क्रोधयुक्त का भी क्रोध रूप ही रहता है । श्राशातना स्त्रीलिंग शब्द है, अतः 'क्रोधा रूप का प्रयोग किया गया है ।
- 'क्रोधयेति क्रोधवयेति प्राप्ते अर्शादेराकृतिगणत्वात् अच् प्रत्थ'यान्तत्वात् 'क्रोधया' क्रोधानुगतया । श्राचार्य हरिभद्र | मायया और लोभया का मर्म भी च् प्रत्यय है, अतः मानवत्या,
'कोया' के समान ही मानया, समझ लेना चाहिए | सब में अर्शादि मायावत्या और लोभवस्था अर्थ ही ग्राह्य है ।
सार्वकालिकी
आशातना के लिए यह विशेषण बड़ा ही महत्वपूर्ण अर्थ रखता है 1 शिष्य गुरुदेव के चरणों में आशातना का प्रतिक्रमण करता हुआ निवेदन करता है कि 'भगवन् ! मैं दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक तथा सांवत्सरिक श्राशातना के लिए क्षमा चाहता हूँ और उसका प्रतिक्रमण करता हूँ । इतना ही नहीं, अबतक के इस जीवन में जो अपराध हुत्रा हो, उसके लिए भी क्षमा याचना है। प्रस्तुत जीवन ही नहीं, पूर्व जीवन और उससे भी पूर्व जीवन, इस प्रकार अनन्तानन्त
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