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द्वादशावर्त गुरुवन्दन-सूत्र
.२८५ यात्रा के द्वारा मोक्ष में पहुँचे हैं और पहुंचेगे। सयमी साधक के लिए जीवन की प्रत्येक शुभ प्रवृत्ति यात्रा है, मोक्ष का मार्ग है। यापनोय
'यात्रा' के समान 'यापनीय' शब्द भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। यापनीय का अर्थ है मन और इन्द्रिय -श्रादि पर अधिकार रखना, अर्थात् उनको अपने वश में नियंत्रण में रखना । मन और इन्द्रियों का अनुपशान्त रहना, अनियंत्रित रहना अकुशलता है, अयापनीयता है ।
और इनका उपशान्त हो जाना, नियंत्रित हो जाना ही कुशलता है, यापनीयता है। ___ कुछ हिन्दी टीकाकारों ने, जिनमें पं० सुखलालजी भी हैं, 'जवणिज्ज च भे? की व्याख्या करते हुए लिखा है कि 'आपका शरीर मन तथा इन्द्रियों की पीड़ा से रहित है ।' हमने भी यही अर्थ लिखा है । प्राचार्य हरिभद्र ने भी इस सम्बन्ध में कहा है--'यापनीयं चेन्द्रियतोइनिद्वयोपशम्मादिना प्रकारेण भवतां ? शरीरमिति यम्यते ।' यहाँ इन्द्रिय से इन्द्रिय और नोइन्द्रिय से मन समझा गया है और ऊपर के अर्थ की कल्पना की गई है।
परन्तु भगवती सूत्र में यापनीय का निरूपण करते हुए कहा है कि-यापनीय के दो प्रकार हैं इन्द्रिय .यापनीय और नोइन्द्रिय यापनीय । पाँचौं इन्द्रियों का निरूपहत रूप से अपने वश में होना, - इन्द्रिय-यापनीयता है । और क्रोधादि कषायों का उच्छिन्न होना, उदय न होना, उपशान्त हो जाना, नोइन्द्रिय यापनीयता है !
-जवणिज्जे दुविहे पत्ते, तंजहा-इंदियजवणिज्जे य नोइरिदयजवणिजे य।
से किं तं इंदियजवणिज्जे ? जं मे सोइंदिय-चविखदियघाणिदिय-जिभिदिय-फासिंदियाई निरुवहयाई वसे पति, सेत्त' इंदियजवणिज्ज।
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