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श्रमण सूत्र
प्राचीन भारत में प्रस्तुत विनय के सिद्धान्त पर अत्यधिक बल दिया गया है । आपके समक्ष गुरुवन्दन का पाठ है, देखिए, कितना भावुकतापूर्ण है ? "विणयो जिणसासणमूलं' की भावना का कितना सुन्दर प्रतिबिम्ब है ? शिष्य के मुख से एक-एक शब्द प्रेम और श्रद्धा के अमृतरस में डूबा निकल रहा है !
वन्दना करने के लिए पास में आने की भी क्षमा माँगना, चरण छूने से पहले अपने सम्बन्ध में 'निसीहियाए' पद के द्वारा सदाचार सं पवित्र रहने का गुरुदेव को विश्वास दिलाना, चरण छूने तक के कष्ट की भी क्षमा याचना करना, सार्यकाल में दिन सम्बन्धी ओर प्रातःकाल में रात्रि सम्बन्धी कुशलक्षेम पूछना, संयम यात्रा की अस्खलना भी पूछना, अपने से आवश्यक क्रिया करते हुए जो कुछ भी अाशातना हुई हो तदर्थ क्षमा माँगना, पापाचारमय पूर्वजीवन का परित्याग कर भविष्य में नये सिरे से संयम जीवन के ग्रहण करने की प्रतिज्ञा करना, कितना भावभरा एवं हृदय के अन्तरतम भाग को छूने वाला बन्दना का क्रम है ! स्थान-स्थान पर गुरुदेव के लिए 'चमाश्रमण' सम्बोधन का प्रयोग, क्षमा के लिए, शिष्य की कितनी अधिक आतुरता प्रकट करता है; तथाच गुरुदेव को किस ऊँचे दर्जे का क्षमामूर्ति सत प्रमाणित करता है।
- अब आइए, मूल-सूत्र के कुछ विशेष शब्दों पर विचार करले। यद्यपि शब्दार्थ और भावार्थ में काफी स्पष्टीकरण हो चुका है, फिर भी गहराई में उतरे विना पूर्ण स्पष्टता नहीं हो सकती। इच्छामि
जैनधर्म इच्छापघान धम है। यहाँ किसी आतंक या दवाव से कोई काम करना और मन में स्वयं किसी प्रकार का उल्लास न रखना, 'अभिमत श्रथच अभिहित नहीं है । विना प्रसन्न मनोभावना के की जाने 'वाली धम क्रिया, कितनी ही क्यों न महनीय हो, अन्ततः वह मृत है, निष्प्राण है। इस प्रकार भय के भार से लदी हुई मृत धम क्रियाएँ
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