________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
श्रमण-सूत्र
दुर्भाषण से, शरीर की दुष्ट चेष्टाओं से, क्रोध से, मान से, माया से, लोभ से, सार्वकालिकी =सर्वकाल से सम्बन्धित, सब प्रकार के मिथ्या अर्थात् मायिक व्यवहारों वाली, सब प्रकार के धमों को अतिक्रमण करनेवाली तेतीस आशातनाओं में से दिवस-सम्बन्धी किसी भी अाशातना के द्वारा मैंने जो भी अतिचार = दोष किया हो; उसका प्रतिक्रमण करता हूँ, मन से उसकी निन्दा करता हूँ, आपके समक्ष वचन से उसकी गर्दा करता हूँ; और पाप कर्म करने वाली बहिरात्मभावरूप अतीत श्रात्मा का परित्याग करता हूँ, अर्थात् इस प्रकार के पाप-व्यापारों से प्रात्मा को अलग हटाता हूँ।
- विवेचन श्रावश्यक क्रिया में तीसरे वन्दन आवश्यक का महत्त्वपूर्ण स्थान है। हितोपदेशी गुरुदेव को विनम्र हृदय से अभिवन्दन करना और उनकी दिन तथा रात्रि सम्बन्धी सुखशान्ति पूछना, शिष्य का परम कर्तव्य है । भारतीय संस्कृति में, विशेषतः जैन सस्कृति में अध्यात्मवाद की महती महिमा है; और आध्यात्मिकता के जीवित चित्र गुरुदेव की महिमा के सम्बन्ध में तो कहना ही क्या ? अन्धकार में भटकते हुए, ठोकरें खाते हुए मनुष्य के लिए दीपक की जो स्थिति है, ठीक वही स्थिति अज्ञानान्धकार में भटकते हुए शिष्य के प्रति गुरुदेव की है । अतएक जैन संस्कृति में कृतज्ञता प्रदर्शन के नाते पद-पद पर गुरुदेव को वन्दन करने की परंपरा प्रचलित है । अरिहन्तों के नीचे गुरुदेव ही प्राध्यात्मिकसाम्राज्य के अधिपति हैं । उनको वन्दन करना भगवान् को वन्दन करना है । अस्तु, इस महिमाशाली गुरुवन्दन के उद्देश्य को एवं इसकी सुन्दर पद्धति को प्रस्तुत पाठ में बड़े ही मामि क ढंग से प्रदर्शित किया गया है।
अाज का मानय धर्म-परंपराओं से शून्य होता जा रहा है, चारों अोर स्वच्छन्दता की प्रवृत्ति बढ़ रही है, विनय और नम्रता के स्थान में अहंकार जागृत हो रहा है। आज वह पुरानी अादर्श पद्धति कहाँ है कि गुरुदेव के आते ही खड़ा हो जाना, सामने जाना, ग्रासन अर्पण करना
For Private And Personal