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श्रमण-सूत्र
यह भिक्षा स्वयं साधक की आत्मा में, राष्ट्र में तथा समाज में सदाचार का प्रचण्ड तेज सञ्चार करने वाली है। दूसरी पौरुषनी भिक्षा है। जो मनुष्य आलस्यवश स्वयं पुरुषार्थं न करके साधुवेप पहन कर भिक्षा द्वारा प्राजीविका चलाता है, वह पौरुषघ्नी भिक्षा है । हट्टा-कट्टा मज़बूत आदमी, यदि केवल साधुता की माया रचकर मौज उड़ाता है तो वह अपने पौरुष को नष्ट करने के अ.ि रिक्त और क्या करता है ? यह भिक्षा अवश्य ही राष्ट्र के लिए घातक है । वाचक यशोविजय इसी सम्बन्ध में कहते हैं:-- दीक्षा-विरोधिनी भिक्षा,
पौरुषत्री प्रकीर्तिता; धर्मलाघवमेव स्यात्, तया पानस्य जीवतः ॥११॥
-द्वात्रि०६ तीसरी वृत्तिभिक्षा वह है, जो दीन अन्धं आदि असहाय मनुष्य स्वयं कुछ कार्य नहीं कर सकने के कारण भिक्षा माँगते हैं । जब तक राष्ट्र इन लोगों के लिए कोई विशेष प्रबन्ध नहीं कर देता, तब तक मानवता के नाते इन लोगों को भी भिक्षा माँगने का अधिकार है। ___ उपयुक्त वक्तव्य से स्पष्ट हो गया है कि जैनमुनि की भिक्षा का क्या स्वरूप है ? वह अन्य भिक्षात्रों से किस प्रकार पृथक् है ? वह राष्ट्र के लिए अथवा साधक के लिए घातक नहीं; प्रत्युत उपकारक है ? अब कुछ प्रस्तुत पाठान्तर्गत विशेष शब्दों का स्पष्टीकरण कर लेना भी आवश्यक है : गोचर चों
कितना ऊँचा भाव भरा शब्द है ? "गोवरणं गोचरः चरणं चर्या,
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