________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
१४४
श्रमण-सूत्र
रस का जाल ललचा रहा है तो कहीं कटु, तिक्त, खट्टा, बकबका कुरस का जाल बेचैन किए हुए है। कहीं मृदुल सुकोमल स्पर्श का जाल शरीर में गुदगुदी पैदा कर रहा है तो कहीं कर्कश कठोर स्पर्श का जाल शरीर में कँपकँपी पैदा कर रहा है। किंबहुना, मनुष्य जिधर भी दृष्टि डालता है उधर ही कोई न कोई राग या द्वष का जाल आत्मा को फँसाने के लिए विद्यमान है।
आप विचार करते होंगे-"फिर तो मुक्ति का कोई मार्ग ही नहीं ?" क्यों नहीं, अवश्य है। सावधान रहने वाले साधक के लिए संसार में कोई भी जाल नहीं। कुछ भी सुन्दर असुन्दर कामगुण पाए, श्राप उस पर राग अथवा द्वष न कीजिए, तटस्थ रहिए। फिर कोई बन्धन नहीं, कोई जाल नहीं। वस्तु स्वयं बन्धक नहीं है। बन्धक है, मनुष्य का रागद्वेषाकुल मन । जब रागद्वेष करोगे ही नहीं, सर्वथा तटस्थ ही रहोगे, फिर बन्धन कैसा ? जाल कैसा ? । __प्रस्तुत सूत्र में यही उल्लेख है कि यदि सयम यात्रा करते हुए कहीं शब्दादि में मन भटक गया हो, तटस्थता को छोड़ कर रागद्वप युक्त हो गया हो, जाल में फँस गया हो तो उसे वहाँ से हटाकर पुनः सयम पथ पर अग्रसर करना चाहिए । यही काम गुण से आत्मा का प्रतिक्रमण है।
For Private And Personal