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उपस हार-सूत्र
२६७
जब तक पापाचार के प्रति घृणा न हो, तब तक मनुष्य उससे बच नहीं सकता । पापाचार के प्रति उत्कट घृणा रखना ही पापों से बचने का एक मात्र अस्खलित मार्ग है । अतः अालोचना, निन्दा, गर्हा और जुगुप्सा के द्वारा किया जाने वाला प्रतिक्रमण ही सच्चा प्रतिक्रमण है।
प्राचार्य जिनदास प्रस्तुत उपस हार सूत्र में एवं के बाद 'अहं' का उल्लेख नहीं करते । ओर अालोइय, निन्दिय आदि में क्त्वा प्रत्यय भी नहीं मानते, जिसका अर्थ 'करके' किया जाता है । जैसे आलोचना करके, निन्दा करके इत्यादि । प्राचार्य श्री इन सब पदों को निष्ठान्त मानते हैं, फलतः उनके उल्लेखानुसार अर्थ होता है-मैंने आलोचना की है, निन्दा की है, गर्दा की है इत्यादि । दुगुछा का अर्थ भी स्वतंत्र नहीं करते । अपितु बालोचना, निन्दा और गर्दा को ही दुगुछा कहते हैं । देखिए अावश्यक चूर्णि प्रतिक्रमणाधिकार :___"एवमित्ति अनेन प्रकारेण पालोइयं पयासितूणं गुरूणं कहितं, निन्दियं मणेण पच्छातावो । गरहितं वइजोगेण । एवं आलोइयनिंदियगरहियमेव दुगुछितं । एवं तिवहेण जोगेण पडिक्यतो वंदामि चउव्वीसं ति ।"
अन में चौबीस तीर्थंकरों को नमस्कार मंगलार्थक है । प्रतिक्रमण के द्वारा शुद हुअा साधक अन्त में अपने को तीर्थंकरों की शरण में अर्पण करता है और अनर्जला के रूम में मानो कहता है कि-"भगवन् ! मैंने आपकी आज्ञानुसार प्रतिक्रमण कर लिया है । आपकी सादी से विना कुछ छुपाए पूर्ण निष्कपट भाव से पालोचना, निन्दा, गर्दा कर के शुद्ध हो गया हूँ । अब मैं आपके पवित्र चरणों में वन्दन करने का अधिकारी हूँ। श्राप अन्तर्यामी हैं । घट-घट की जानते हैं । आपसे मेरा कुछ छुपा हुया नहीं है । अब मैं अापकी देख-रेख में भविष्य के लिए पवित्र सयम पथ पर चलने का दृढ़ प्रयत्न करूंगा।'
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