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भयादि सूत्र
(१७) जीवों वाले स्थान पर तथा प्राणी, बीज, हरित, कीड़ीनगरा, लीलनफूलन, पानी, कीचड़, और मकड़ी के जालों वाले स्थान पर बैठना, सोना, कायोत्सर्ग श्रादि करना शबल दोप है ।
(१८) जानबूझ कर कन्द, मूल, छाल, प्रवाल, पुष्प, फूल, बीज, तथा हरितकाय का भोजन करना ।
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(१६) वर्ष के अन्दर दस बार उदक लेप = नदी पार करना । (२०) वर्ष में दस माया स्थानों का सेवन करना ।
(२१) जानबूझ कर सचित्त जल वाले हाथ से तथा सचित्त जल सहित कड़छी आदि से दिया जानेवाला आहार ग्रहण करना ।
उपर्युक्त शचल दोष साधु के लिए सर्वथा त्याज्य हैं । जिन कार्यों के करने से चारित्र की निर्मलता नष्ट हो जाती है, चारित्र मलक्लिन्न होने के कारण कर्बुर हो जाता है, उन्हें शबल दक्षेत्र कहते हैं । उक्त दोषों के सेवन करने वाले साधु भी शक्ल कहलाते हैं । 'शबलं - कबुरं चारित्रं यैः क्रियाविशेष भवति ते शबलास्तद्योगात्साधवोऽपि ।
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- अभयदेव समवा • टीका । उत्तरगुणों में अतिक्रमादि चारों दोषों का एवं मूल गुणों में अनाचार के सिवा तीन दोषों का सेवन करने से चारित्र शबल होता है । बाईस परीषह
( १ ) क्षुधा = भूख ( २ ) पिसा = प्यास ( ३ ) शीत = टंड (४) उष्ण - गर्मी (५) दंशमशक ( ६ ) अचेल = वस्त्राभाव का क ( ७ ) अरति : कठिनाइयों से घबरा कर संयम के प्रति होने वाली उदासीनता (८) स्त्रीपरीषद ( ६ ) चर्या = विहार यात्रा में होने वाला गमनादि कट (१०) नैप धिकी = स्वाध्याय भूमि श्रादि में होने वाले उपद्रव (११) शय्या = निवास स्थान की प्रतिकूलता ( १२ ) आक्रोश : दुर्वचन (१३) वध = लकड़ी आदि की मार सहना (१४) याचना (१५) अलाभ (१६) रोग (१७) तृण स्पर्श (१८) जल्ल = मल का परीषद् (१६) सत्कार पुरस्कार = पूजा प्रतिष्ठा (२०) प्रज्ञा = बुद्धि का गर्व (२१)
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