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प्रतिज्ञा-सूत्र
२५५
धर्म की साधना का यही क्षेत्र माना जाता है । अागे के क्षेत्रों में न मनुष्य हैं और न श्रमणधम की साधना है। अस्तु, अन्तिम दो गाथाओं में अधाई द्वीप के मानव क्षेत्र में जो भी साधु-साध्वी हैं, सबको मस्तक झुकाकर वन्दन किया गया है ।
प्रथम गाथा में रजोहरण, गोच्छक एवं प्रतिग्रह = पात्र अादि द्रव्य साधु के चिह्न बताए हैं। और यागे की गाथा में पाँच महाव्रत श्रादि भाव साधु के गुण कहे गए हैं । जो द्रव्य और भाव दोनों दृष्टियों से साधुता की मर्यादा से युक्त हों, वे सब वन्दनीय मुनि हैं । द्रव्य के बाद भाव का उल्लेख, भाव साधुता का महत्त्व बताने के लिए है । द्रव्य साधुता न हो और केवल भावसाधुता हो, तब भी वह वन्दनीय है; परन्तु भाव के बिना केवल द्रव्य-साधुता कथमपि वन्दनीय नहीं हो सकती । अठारह ह्नार शील अंगों की व्याख्या के लिए अवतरणिका उठाते हुए प्राचार्य हरिभद्र यही सूचना करते हैं कि-"एकाङ्ग विकलप्रत्येक बुद्धादिसंग्रहाय अष्टादशशील सहस्रधारिणः, तथाहि केचिद् मगवन्तो रजोहरणादिधारिणो न भवन्त्यपि ।" अट्ठारह हजार-शोल
'शील' का अर्थ 'याचार' है । भेदानुभेद की दृष्टि से याचार के अठारह हजार प्रकार होते हैं। क्षमा, निर्लोभता, सरलता, मृदुता, लाधव, सत्य, सयम, तप, त्याग और ब्रहाचर्य-~~यह दश प्रकार का श्रमण-धर्म है। दशविध श्रमण धर्म के धर्ता मुनि, पाँच स्थावर, चार त्रस और एक अजीव---इस प्रकार दश की विराधना नहीं करते ।
अस्तु, दशविध श्रमण धर्म को पृथ्वी काय आदि दश की अविराधना से गुणन करने पर १०० भेद हो जाते हैं। पांच इन्द्रियों के वश में पड़कर ही मानव पृथिवी काय आदि दश की विराधना करता है; अतः सौ को पाँच इन्द्रियों के विजय से गुणन करने पर ५०० भेद होते हैं । पुनः आहार, भय, मैथुन और परिग्रह-उक्त चार सज्ञानों के निरोध से पूर्वोक्त पांच सौ भेों को गुण न करने से दो हजार भेद होते हैं। दो हजार
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