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श्रमण-सूत्र
को ' मन, वचन और काय उक्त तीन दण्डों के निरोध से तीन गुणा करने पर छह हजार भेद होते हैं । पुनः छह हजार को करना, कराना
और अनुमोदन उक्त तीनों से गुणन होने पर कुल अठारह हजार शील के भेद होते हैं । प्राचार्य हरिभद्र इस सम्बन्ध में एक प्राचीन गाथा उद्धृत करते हैं
जो ए करणे सन्ना,
इंदिय भोमाइ समण धम्म य । सीलंग-सहस्साणं,
अड्ढार सगरस निष्फत्ती॥ शिरसा, मनसा, मस्तकेन
प्रस्तुत सूत्र में सिरसा मणसा मत्थएण वंदामि' पाट याता है, इसका अर्थ है 'शिर से, मन से और मस्तक से वन्दना करता हूँ।' प्रश्न होता है कि शिर ओर मस्तक तो एक ही हैं, फिर यह पुनरुक्ति क्यों ? उत्तर में निवेदन है कि-शिर, समस्त शरीर में मुख्य है। अतः शिर से वन्दन करने का अभिप्राय है-शरीर से वन्दन करना । मन अन्तः करण है, अतः यह मानसिक वन्दना का द्योतक है। 'मत्थाएण' वंदामि का अर्थ है-'मस्तक झुकाकर वन्दना करता हूँ, यह वाचिक वन्दना का रूप है। अस्तु मानसिक वाचिक और कायिक त्रिविध वन्दना का स्वरूप निर्देश होने से पुनरुक्ति दोष नहीं है । __ प्रस्तुत पाठ के उक्त ग्रंश की अर्थात् 'तेसव्वे सिरसा मणसा मत्थएण वंदामि' की व्याख्या करते हुए प्राचार्य जिनदास भी यही स्पष्टीकरण करते हैं-"ते इति साधवः, सव्वेत्ति गच्छनिग्गत गच्छवासी
१-श्राचार्य हरिभद्र कृत, कारितादि करण से पहले गुणन करते हैं, और मन वचन आदि योग से बाद में ।
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