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श्रमण सूत्र
सहयात्रियों को नमस्कार
प्रस्तुत प्रतिज्ञा सूत्र के प्रारंभ में मोक्षमार्ग के उपदेष्टा धर्म तीर्थंकरों को नमस्कार किया गया था। उस नमस्कार में गुणों के प्रति बहुमान था, कृतज्ञता की अभिव्यक्ति थी, परिणामविशुद्धि का स्थिरीकरणत्व था, और था सम्यग्दर्शन की शुद्धि का भाव, नवोन अाध्यात्मिक स्फूर्ति एवं चेतना का भाव । अब प्रस्तुत नमस्कार में, उन सहयात्रियों को नमस्कार किया गया है, जो साधु और साध्वी के रूप में साधनापथ पर चल रहे हैं, सयम की नाराधना कर रहे हैं, एवं बन्धनमुक्ति के लिए प्रयत्नशील हैं । यह नमस्कार सुकृतानुमोदन-रूप है, साथियों के प्रति बहुमान का प्रदर्शन है । पूर्व नमस्कार साधक से सिद्ध पर पहुंचे हुओं को था, अतः वह सहज भाव से किया जा सकता है। परन्तु अपने जैसे ही साथी यात्रियों को नमस्कार करना सहज नहीं है । यहाँ अभिमान से मुक्ति प्राप्त हुए. विना नमस्कार नहीं हो सकता ।
जैन धर्म विनय का धर्म है, गुण पक्षपाती धर्म है। यहाँ और कुछ नहीं पूछा जाता, केवल गुण पूछा जाता है । सिद्ध हों अथवा साधक हो, कोई भी हो, गुणों के सामने झुक जायो, बहुमान करो यह है हमारा चिरन्तन आदर्श ! सयमक्षेत्र के सभी छोटे-बड़े साधक, फिर वे भले ही पुरुष हों-स्त्री हों, सब नमस्करणीय हैं. अादरणीय हैं,यह भाव है प्रस्तुत नमस्कार का । अपने महधर्मियों के प्रति कितना अधिक विनम्र रहना चाहिए, यह अाज के संप्रदायवादी साधुओं को सीखने जैसी चीज है ! आज की साधुता अपने संप्रदाय में है, अपनी बाड़ाबंदी में है । अतः साधुता को किया जाने वाला विराट नमस्कार भी संप्रदायवाद के क्षुद्र घेरे में अवरुद्ध हो जाता है। समस्त मानवक्षेत्र के साधकों को नमस्कार का विधान करने वाला विराट धम, इतना खुद हृदय भी बन सकता है ? आश्चर्य है !
जम्बू द्वीप, धातकी खण्ड और अर्ध पुष्कर द्वीप तथा लवण एवं कालोदधि समुद्र---यह अढाई द्वीपसमुद्र-परिमित मानव क्षेत्र है। श्रमण
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