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श्रमण सूत्र
की अोर है एवं पीठ सौंसार की ओर | वासना से उसे घृणा है, अत्यन्त घृणा है । उसका आदर्श एक मात्र उच्च जीवन, उच्च विचार और उच्च श्राचार ही है। वह असयम से सयम की ओर, अब्रह्मचर्य से ब्रह्मचर्य की ओर, अज्ञान से ज्ञान की अोर, मिथ्यात्व से सम्यक्त्व की अोर अमार्ग से मार्ग की ओर गतिशील रहना चाहता है। यही कारण है कि यदि कभी भूल से कोई दोष हो गया हो, यात्मा सयम से असंयम की ओर भटक गया हो तो उसकी प्रतिक्रमण द्वारा शुद्धि की जाती है, पश्चातार के द्वारा पाप कालिमा साफ की जाती है । अमयम की जरा सी भी रेखा जीवन पर नहीं रहने दी जाती । प्रतिक्रमण के द्वारा आलोचना कर लेना ही अलं नहीं है, परन्तु पुनः कमी भी यह दोष नहीं किया जायगायह दृढ़ संकल्प भी दुहराया जाता है। प्रस्तुत प्रतिज्ञासूत्र में यही शिव सकल्प है। प्रतिक्रमण श्रावश्यक की समाप्ति पर, साधक, फिर असयम पथ पर कदम न रखने की अपनी धर्म घोषणा करता है।
जैन धर्म का प्रतिक्रमण अपने तक ही केन्द्रित है। वह किसी ईश्वर अथवा परमात्मा के आगे पापों के प्रति क्षमा याचना नहीं है । ईश्वर हमारे पापों को क्षमा कर देगा, फल स्वरूप फिर हमें कुछ भी पाप फल नहीं भोगना पड़ेगा, इम सिद्धान्त में जैनों का अणुभर भी विश्वास नहीं है । जो लोग इस सिद्धान्त में विश्वास करते हैं, वे एक
ओर पाप करते हैं एवं दूसरी ओर ईश्वर से प्रतिदिन क्षमा माँगते रहते हैं । उनका लक्ष्य पापों से बचना नहीं है, किन्तु पापों के फल से बचना है। जब कि जैन धर्म मूलतः पापों से बचने का ही श्रादर्श रखता है। अतएव वह कृत पापों के लिए पश्चाताप कर लेना ही पर्याप्त नहीं समझता; प्रत्युत फिर कभी पार न होने पाएँ-इस बात की भी सावधानी रखता है। पूत्र नमस्कार
प्रतिज्ञा करने से पहले सयम पथ के महान् यात्रो श्री ऋषभादि महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थकर देवों को नमस्कार किया गया है। यह नियम
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