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श्रमण-सूत्र
उत्थान नहीं कर सकता । अतः प्रत्येक साधक को यह अमर घोषणा करनी ही होगी कि 'अभुडियोमि'.---'मैं धर्माराधन के क्षेत्र में दृढ़ता के साथ खड़ा होता हूँ ।' ___जैनागमरत्नाकर पूज्य श्रीअात्मारामजी महाराज अपने आवश्यक सूत्र में 'सदहतो, पत्तिअंतो, रोअंतो' आदि की व्याख्या करते हुए लिखते हैं कि "उस धर्म की अन्य को श्रद्धा करवाता हूँ, प्रीति करवाता हूँ, रुचि करवाता हूँ............निरन्तर पालन करवाता हूँ।" कोई भी विचारक देख सकता है कि क्या यह अर्थ ठाक है ? यहाँ दूसरों को धर्म की श्रद्धा श्रादि कराने का प्रसंग ही क्या है ? किसी भी प्राचीन ग्राचार्य ने यह अर्थ नहीं लिखा है। मालूम होता है यहाँ प्राचार्य जी को प्रेरणार्थक ण्यन्त प्रयोग की भ्रान्ति हो गई है ! परन्तु वह है नहीं । यहाँ तो स्वयं श्रद्धा आदि करते रहने से तात्पर्य है, दूसरों को कराने से नहीं। ज्ञ-परिज्ञा और प्रत्याख्यान-परिज्ञा
ग्रागम-साहित्य में दो प्रकार की परिज्ञायां का उल्लेख पाता है - एक ज्ञ-परिज्ञा तो दूसरी प्रत्याख्यान परिज्ञा । ज्ञ-परिज्ञा का अर्थ, हेय पाचरणा को स्वरूपतः जानना है और प्रत्याख्यान-परिज्ञा का अर्थ, उसका प्रत्याख्यान करना है-उसको छोड़ना है ! असयम-प्राणातिपात आदि, अब्रह्मचर्य = मैथुन वृत्ति, अकल्प-अकृत्य, अज्ञान = मिथ्याज्ञान, प्रक्रिया = असक्रिया, मिथ्यात्व = अतत्त्वार्थ श्रद्धान इत्यादि अात्म-विरोधी प्रतिकूल प्राचरण को त्याग कर संयम, ब्रहाचर्य, कृत्य, सम्यगज्ञान, सक्रिया, सम्यगदर्शन प्रादि को स्वीकार करते हुए, यह आवश्यक है कि पहले असयम ग्रादि का स्वरूप-परिज्ञान किया जाय । जब तक यह ही नहीं पता चलेगा कि अयम अादि क्या हैं ? उनका क्या स्वरूप है ? उनके होने से साधक की क्या हानि है ? उन्हें त्यागने में क्या लाभ है ? तब तक उन्हें त्यागा कैसे जायगा ? विवेकपूर्वक किया हुया प्रत्याख्यान ही सुप्रत्यार पान होता है। केवल अन्धपरम्परा से शून्यभावेन त्या यान कर लेने की तो शास्त्रकार कुप्रत्या
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