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प्रतिज्ञा-सूत्र
२४५
स्यान कहते हैं । ग्रतः प्रत्याख्यान- परिजा से पहले ज्ञ परिज्ञा अत्यन्त श्रावश्यक है | अज्ञानी साधक कुछ भी हिताहित नहीं जान सकता । 'अन्नाणी किं काही ? किंवा नाही सेयपावगं ।
श्रतएव 'असंजम परिश्राणामि संजमं उब संपजामि' इत्यादि सूत्रपाठ में जो 'परिश्रागामि' क्रिया है, उसका अर्थ न केवल जानना है और न केवल छोड़ना । प्रत्युत सम्मिलित अर्थ है, 'जानकर छोड़ना ।' इसी विचार को ध्यान में रख हमने भावार्थ में लिखा है कि 'संयम को जानता हूँ और त्यागता हूँ' इत्यादि । श्राचार्य जिनदास भी यही कहते हैं- 'परियाणामिति ज्ञपरिण्णया जाणामि, पञ्चक्खाणपरिणया 'पञ्चवखामि । श्राचार्य हरिभद्र भी 'पडिजाणामि' पाठ स्वीकार करके 'प्रतिजानामि' संस्कृत रूप बनाते हैं और उसका अर्थ करते हैं- 'ज्ञ-परिज्ञया विज्ञाय प्रत्याख्यान- परिज्ञया प्रत्या ज्यामीत्यर्थः ।' श्रद्धय पूज्यश्री आत्मारामजी महाराज ने भी दोनों ही परिज्ञायों का उल्लेख किया है, जो परम्परासिद्ध एवं तर्कसंगत है । परन्तु श्रद्ध ेय पूज्यश्री अमोलक ऋषिजी केवल 'त्याग' ग्रंथ का ही उल्लेख करते हैं । संभव है, आपका ज्ञपरिज्ञा से परिचय न हो !
serer और कल्प
कल्प का अर्थ ग्राचार है । ग्रतः चरण-करण रूप आचार-व्यवहार को आगम की भाषा में कल्प कहा जाता है । इसके विपरीत अकल्प होता है । साधक प्रतिज्ञा करता है कि 'मैं प्रकल्प = कृत्य को जानता तथा त्यागता हूँ, और कल्प = कृत्य को स्वीकार करता हूँ ।"
पूज्य श्री अमोलक ऋषिजी महाराज 'प्रकणं परिश्राणामि क 'उवसंपजामि' का अर्थ करते हैं - 'अकल्पनीक वस्तु का त्याग करता हूँ, कल्पनीक वस्तु को अंगीकार करता हूँ ।' पूज्य श्री के अर्थ से कोई भी
१ 'प्रकल्पोऽकृत्यमाख्यायते, कल्पस्तु कृत्यमिति । - श्राचार्य हरिभद्र |
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