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श्रमण-सूत्र
साधक को धर्माचरण के लिए प्रखर स्फूर्ति देता है, और देता है अच चल ज्ञान चेतना ।
आइए, अब कुछ विशेष शब्दों पर विचार कर ले । 'श्रमण' शब्द में साधना के प्रति निरन्तर जागरूकता, सावधानता एवं प्रयत्नशीलता का भाव रहा हुआ है । 'मैं श्रमण हूँ' अर्थात् साधना के लिए कठोर श्रम करने वाला हूँ। मुझे जो कुछ पाना है, अपने श्रम अर्थात् पुरुषार्थ के द्वारा ही पाना है। अतः मैं सबम के लिए अतीत में प्रतिक्षण श्रम करता रहा हूँ। वर्तमान में श्रम कर रहा हूँ और भविष्य में भी श्रम करता रहूँगा। यह है वह विराट अाध्यात्मिक श्रम-भावना, जो श्रमण शब्द से ध्वनित होती है । ___ संयत का अर्थ है-'सयम में सम्यक् यतन करने वाला ।' अहिंसा, सत्य यादि कर्तव्यों में साधक को सदैव सम्यक प्रयत्न करते रहना चाहिए । यह सयम की साधना का भावात्मक रूप है । "संजतोसम्म जतो, करणीयेसु जोगेषु सम्यक प्रयत्नपर इत्यर्थः ।"-यावश्यक चूर्णि
विरत का अर्थ है-'सब प्रकार के सावद्य योगों से विरति= निवृत्ति करने वाला ।' जो संबम की साधना करना चाहता है, उसे असदाचरण रूप समस्त सावध प्रयत्नों से निवृत्त होना ही चाहिए । यह नहीं हो सकता कि एक ओर सयम की साधना करते रहें और दूसरी योर सांसारिक सावध पाप कर्मों में भी संलग्न रहें। स यम और असंयम में परस्पर विरोध है । इतना विरोध है कि दोनों तीन काल में भी कभी एकत्र नहीं रह सकते । यह साधना का निषेधात्मक रूप है : 'एगो विरई कुजा, एगो य पवत्तण'-उत्तराध्ययन सूत्र के उक्त कथन के अनुसार अस. यम में निवृत्ति और संयम में प्रवृत्ति करने से ही साधना का वास्तविक रूप स्पष्ट होता है।
प्रतिहत-प्रत्याख्यात पापकर्मा का अर्थ है-'भूतकाल में किए गए पाप कर्मों को निन्दा एवं गीं के द्वारा प्रतिहत करने वाला और वर्तमान
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