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प्रतिज्ञा-सूत्र
२५१
तथा भविष्य में होने वाले पाप कर्मों को अकरणतारूप प्रत्याख्यान के द्वारा प्रत्याख्यात करने वाला ।' यह विशेषण साधक की कालिक जीवन शुद्धि का प्रतीक है । सञ्चा साधक वही साधक है, जो अपने जीवन के तीनों कालों में से अर्थात् भूत, भविष्यत्, वर्तमान में से, पाप कालिमा को धोकर साफ कर देता है । वह न वर्तमान में पाप करता है, न भविष्यत में करेगा और न भूतकाल के पायों को ही जीवन के किसी अंग में लगा रहने देगा । उसे पार कमों से लड़ना है। केवल वर्तमान में ही नहीं, अपितु भूत और भविष्यत् में भी लड़ना है। साधना का अर्थ ही पाप कर्मों पर त्रिकालविजयी होना है ।
तिहत-प्रत्याच्यातपापकर्मा की व्युत्पत्ति करते हुए प्राचार्य जिनदास लिखते हैं--'पडिहतं अतीतं णि दण-गरहणादीहिं, पञ्चक्खातं सेसं प्रकरणतया पावकम्मं पावाचारं येण स तथा।'
अनिदान का अर्थ होता है--निदान से रहित अर्थात् निदान का परिहार करने वाला। निदान का अर्थ ग्रामक्ति है। साधना के लिए किसी प्रकार की भी भोगासक्ति जहरीला कीड़ा है। कितनी ही बड़ी ऊँची साधना हो, यदि भोगासक्ति है तो वह उसे अन्दर ही अन्दर खोखला कर देती है सड़ा-गला देती है। अतः साधक घोषणा करता है कि "मैं श्रमण हूँ, अनिदान हूँ । न मुझे इस लोक की आसक्ति है, और न परलोक की । न मुझे देवताओं का वैभव ललचा सकता है और न किसी चक्रवर्ती सम्राट का विशाल साम्राज्य ही। इस विराट संसार में मेरी कहीं भी कामना नहीं है । न मुझे दुःख से भय है और न सुख से मोह । अतः मेरा मन न काँटों में उलझ सकता है और न फूलों में। मैं साधक हूँ। अस्तु, मेरा एकमात्र लक्ष्य मेरी अपनी साधना है, अन्य कुछ नहीं । मेरा ध्येय बन्धन नहीं, प्रत्युत बन्धन से मुक्ति है।"
जैन सस्कृति का यह आदर्श कितना महत्त्वपूर्ण है ! अनिदान शब्द के द्वारा जैन साधना का ध्येय स्पष्ट हो जाता है। जो साधक अपने लिए कोई सांसारिक निदान सम्बन्धी ध्येय निश्चित करते हैं, वे पथ भ्रष्ट हुए
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