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प्रतिज्ञा-सूत्र
२३१ बाहर के शल्य कुछ काल के लिए ही पीड़ा देते हैं, अधिक से अधिक वर्तमान जीवन का संहार कर सकते हैं । परन्तु ये अंदर के शल्य तो बड़े ही भयंकर हैं । अनन्तकाल से अनन्त आत्माएँ, इन शल्यों के द्वारा पीड़ित रही हैं । स्वर्ग में पहुँच कर भी इनसे मुक्ति नहीं मिली। संसार भर का विराट ऐश्वर्य एवं सुख-समृद्धि पाकर भी श्रात्मा अन्दर में स्वस्थ नहीं हो सकती, जब तक कि शल्य से मुक्ति न मिले । शल्यों का विस्तृत निरूपण, शल्य सूत्र में कर पाए हैं, अतः पाठक वहाँ देख सकते हैं।
उक्त शल्यों को काटने की शक्ति एकमात्र धर्म में ही है। सम्यग्दर्शन मिथ्यात्व शल्य को काटता है, सरलता माया-शल्य को और निर्लोभता निदान शल्य को । अतएव धर्म को शल्य-कर्तन ठीक ही कहा गया है ---"कृन्तीति कर्तनं शल्यानि-मायादीनि, तेषां कर्तनं भव-निबन्धनमायादि शल्यच्छेदकमित्यर्थः ।"..-प्राचार्य हरिभद्र । सिद्धि मार्ग __ प्राचार्य हरिभद्र सिद्धि का अर्थ 'हितार्थ-प्राप्ति' करते हैं । 'सेधनं सिद्धिः हितार्थ-प्राप्तिः ।' प्राचार्यकल्प पं० आशाधरजी मूलाराधना की टीका में अपने प्रात्म-स्वरूप की उपलब्धि को ही सिद्धि' कहते हैं। 'सिद्धिः स्वात्मोपलब्धिः ।' अात्मस्वरूप की प्राप्ति के अतिरिक्त और कोई सिद्धि नहीं है । यात्मस्वरूपोपलब्धि ही सबसे महान् हितार्थ है। ___ मार्ग का अर्थ उपाय है। अात्मस्वरूपोपलब्धि का मार्ग = उपाय सम्यग दर्शनादि रत्नत्रय है | यदि साधक सिद्धत्व प्राप्त करना चाहता है, अात्मस्वरूप का दर्शन करना चाहता है, कर्मों के आवरण को हटा कर शुद्ध पात्मज्योति का प्रकाश पाना चाहता है, तो इसके लिए शुद्ध भाव से सम्यग दर्शनादि धर्म की साधना ही एकमात्र अमोघ उपाय है। मुक्ति-मार्ग __प्राचार्य जिनदास मुक्ति का अर्थ निमुक्तता अर्थात् निःसगता करते हैं । प्राचार्य हरिभद्र कर्मों की विच्युति को मुक्ति कहते हैं । 'मुक्रिः, अहि
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