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प्रतिज्ञा-सूत्र
२३६ प्राप्त होता है. मोक्ष होती है। फिर यह 'मुच्चंति के रूप में कर्मों से मुक्ति होने का स्वतंत्र उल्लेख क्यों किया गया ? ___समाधान है कि कुछ दार्शनिक मोक्ष अवस्था में भी कम की सत्ता मानते हैं । उनके विचार में मोक्ष का अर्थ कर्मों से मुक्ति नहीं, अपितु कृत कर्मों के फल को भोगना मुक्ति है । जब तक शुभ कर्मों का सुख रूप फल का भोग पूर्ण नहीं होता, तबतक अात्मा मोक्ष में रहता है । और ज्यों ही फल-भोग पूर्ण हुअा त्यों ही फिर संसार में लौट आता है।।
जैन दर्शन का कहना है कि यह तो ससारस्थ स्वर्ग का रूपक है, मोक्ष का नहीं । मोक्ष का अर्थ छूट जाना है। यदि मोक्ष में भी कम श्रार कम फल रहे तो फिर छूटा क्या ? मुक्त क्या हुश्मा ? संसार और मोक्ष में कुछ अन्तर ही न रहा ? मोक्ष भी कहना और वहाँ कर्म भी मानवा, यह तो वदतोव्याघात है । जिस प्रकार मैं गूंगा हूँ, बोलूँ कैसे ?' यह कहना अपने ग्राप में असत्य है, उसी प्रकार मोक्ष में भी कर्म बन्धन रहता है, यह कथन भी अपने आप में भ्रान्त एवं असत्य है । मोक्ष में यदि शुभ कमों का अस्तित्व माना जाय तो वह कमजन्य सुख दुःखास भिन्न नहीं हो सकेगा। और यदि मोक्ष में सुख के साथ दुःख भी रहा तो फिर वह मोन ही क्या और मोक्ष का सुख ही क्या ? कम होंगे तो कर्मों से होने वाले जन्म, जरा, मरण भी होंगे ? इस प्रकार एक क्या, अनेकानेक दुःखों की परम्परा चल पड़ती है। अतः जैन धर्म का यह सिद्धान्त सर्वथा सत्य है कि सिद्ध होने पर प्रात्मा सब प्रकार के शुभाशुभ कर्मों से सदा के लिए मुक्त हो जाता है । सिद्धत्व का अर्थ ही मुक्तत्व है। परिनिव्वायंति
यह पहले कहा जा चुका है कि जैन दर्शन का निर्वाण बौद्ध निर्वाण के समान अभावात्मक नहीं है। यहाँ आत्मा की सत्ता के नष्ट होने पर दुःखों का नाश नहीं माना है । बौद्ध दर्शन रोगी का अस्तित्व समाप्त होने पर कहता है कि देखो, रोग नहीं रहा । परन्तु जैन दर्शन रोगी का रोग
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