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प्रतिज्ञा सूत्र
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यह तो केवलिगम्य है । हाँ, अभी तक और कोई समाधान हमारे देखने
में नहीं आया है । अविसन्धि
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विधि का अर्थ है - सन्धि से रहित । सन्धि, बीच के अन्तर को कहते हैं । अतः फलितार्थ यह हुआ कि जिन शासन अनन्तकाल से निरन्तर व्यवच्छिन्न चला श्रा रहा है । भरतादि क्षेत्र में, किसी काल विशेष में नहीं भी होता है, परन्तु महा विदेह क्षेत्र में तो सदा सर्वदा श्रव्यवच्छिन्न बना रहता है । काल की सीमाएँ जैनधर्म की प्रगति को अवरुद्ध नहीं कर सकतीं। वह धर्म ही क्या, जो काल के घेरे में ग्रा जाय ! जिन धर्म, निज धर्म है - श्रात्मा का धर्म है । अतः वह तीन काल और तीन लोक में कहीं न कहीं सदा सर्वदा मिलेगा ही । जैनधम ने देवलोक में भी सम्यक्त्व का होना स्वीकार किया है और नरक में भी। पशु-पक्षी तथा पृथ्वी, जल आदि में भी मिल जाता है । यतः किसी क्षेत्रविशेष एवं काल
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के न होने का जो उल्लेख किया है, वह चारित्ररूप धर्म का है, सम्यक्त्व
धर्म का नहीं । सम्यक्त्व धर्म' तो प्रायः सर्वत्र ही अव्यवच्छिन्न रहता
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है। हाँ चारित्र धर्म की श्रव्यवच्छिन्नता भी महाविदेह की दृष्टि से सिद्ध हो जाती है ।
सर्व दुःख प्रहीण मार्ग
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धर्म का अन्तिम विशेपण सर्वदुःख प्रहीणमार्ग है । उक्त विशेषण
सम्यग् दर्शन का प्रकाश
विशेष में जैनधर्म
में धर्म की महिमा का विराट सागर छुपा हुआ है । संसार का प्रत्येक प्राणी दुःख से व्याकुल है, क्लेश से स ंतत है । वह अपने लिए सुख चाहता है, ग्रानन्द चाहता है | आनन्द भी वह, जो कभी दुःख से स भिन्न = स्पृष्ट न हो । दुःखास भिन्नत्व ही सुख की विशेषता है । परन्तु संसार का कोई भी ऐसा सुख नहीं है, जो दुःख से असं भिन्न हो । यहाँ सुख से पहले दुःख है, सुख के बाद दुःख है, और सुख की विद्यमानता में भी दुःख है । एक दुःख का अन्त होता नहीं है और
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