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प्रतशि-सूत्र
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का उल्लेख किया है | 'तत्' शब्द भी पूर्व परामर्शक होने के कारण पूर्व उल्लेख की ओर संकेत करता है। अर्थात् पूर्वोक्त- विशेषण - विशिष्ट प्रावन को ही धर्म बताता है । आचार्य हरिभद्र भी यहाँ ऐसा ही उल्लेख करते हैं- 'य एष नैन्थ्य-प्रावचन लक्षणों धर्म उक्तः, तं धर्म श्रदध्महे ।' यापनीय संघ के महान् आचार्य श्री पराजित तो निर्ग्रन्थ का अर्थ ही मिथ्यात्व अज्ञान एवं ग्रविरति रूप ग्रन्थ से निर्गत होने के कारण सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान, सम्यक् चारित्र आदि धर्म करते हैं । और जिनागम रूप प्रवचन का अभिधेय अर्थात् प्रतिपाद्य विषय होने से धर्म को ही प्रावचन भी कहते हैं । 'प्रावचन' शब्द को देखते हुए, उसका अर्थ, प्रवचन ( शास्त्र ) की अपेक्षा प्रावचन अर्थात् प्रवचनप्रतिपाद्य ही भाषा शास्त्र की दृष्टि से कुछ अधिक संगत प्रतीत होता है । - " ग्रथ्नन्ति रचयन्ति दीर्घौ कुर्वन्ति संसारमिति ग्रन्थाः-मिथ्यादर्शनं, मिथ्याज्ञानं श्रसंयमः, कषायाः, अशुभयोगत्रयं चेत्यमी परिणामाः । मिथ्यादर्शनान्निष्क्रान्तं किम् ? सम्यग दर्शनम् । मिथ्याज्ञानान्निष्क्रान्तं सम्यग ज्ञानं, असंयमात् कषायेभ्योऽशुभयोगत्रयाच्च निष्क्रान्तं सुचारित्रं । तेन तत्त्रयमिह निर्ग्रन्थशब्देन भएयते । प्राचचनं = प्रवचनस्य जिनागमस्य श्रभिधेयम् ।" (सूलाराधना - विजयोदया १-४३ )
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सत्य
धर्म के लिए सबसे पहला विशेषण सत्य है । सत्य ही तो धर्म हो सकता है । जो असत्य है, अविश्वसनीय है, वह धर्म नहीं, अधर्म है | जब भी कोई व्यक्ति किसी से किसी सिद्धान्त के सम्बन्ध में बात करता है तो पूछने वाला सर्व प्रथम यही पूछता है- क्या यह बात सच है ? इस प्रश्न का उत्तर देना ही होगा । तभी कोई सिद्धान्त श्रागे प्रगति कर सकता है । अतएव सूत्रकार ने सर्व प्रथम इसी प्रश्न का उत्तर दिया है और कहा है कि रत्नत्रय रूप जैन धर्म सत्य है ।
आचार्य जिनदास सत्य की व्युत्पत्ति करते हुए कहते हैं-- 'जो
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