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भयादि-सूत्र
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(१६) मन की शुभ प्रवृत्ति ( १७ ) बचन की शुभ प्रवृत्ति (१८) काय की शुभ प्रवृत्ति ( १६-२४ ) छह काय के जीवों की रक्षा ( २५) संयमयोग-युक्तता (२६ } वेदनाऽभिसहना = तितिक्षा अर्थात् शीतादिकट सहिष्णुता ( २७ ) मारणान्तिक उपसर्ग को भी समभाव से सहना ।
उपर्युक्त सत्ताईस गुण, प्राचार्य हरिभद्र ने अपनी आवश्यक सूत्र की शिष्यहिता टीका में, सग्रहणीकार की एक प्राचीन गाथा के अनुसार वणन किए हैं । परन्तु समवायांग-सूत्र में मुनि के सत्ताईस गुण कुछ भिन्न रूप में अंकित हैं-पाँच महाव्रत, पाँच इन्द्रियों का निरोध, चार कषायों का त्याग, भाव सत्य, करण सत्य, योग सत्य, क्षमा, विरागता, मनः समाहरणता, वचन समाहरणता, काय समाहरणता, ज्ञान सम्पन्नता, दर्शन सम्पन्नता, चारित्र सम्पन्नता, वेदनातिसहनता, मारणान्तिकातिसहनता। __ प्राचार्य हरिभद्र ने यहाँ 'सत्तावीसविहे अणगारचरित, पाठ का उल्लेख किया है। इसका भावार्थ है-सत्ताईस प्रकार का अनगारसम्बन्धी चारित्र । परन्तु आचार्य जिनदास आदि ‘सत्तावीसाए अणगार गुणेहिं पाठ का ही उल्लेख करते हैं। समवायांग-सूत्र में भी अणगारगुण ही है।
उक्त सत्ताईस अनगार गुणों अर्थात् मुनिगुणों का शास्त्रानुसार भली भाँति पालन न करना, अतिचार है । उसकी शुद्धि के लिए मुनि गुणों का प्रतिक्रमण है, अर्थात् अतिचारों से वापस लौटकर मुनि गुणों में ग्राना। अट्ठाईस आचार-प्रकल्प
प्राचार-प्रकल्प की व्याख्या के सम्बन्ध में बहुत सी विभिन्न मान्यताएँ हैं । प्राचार्य हरिभद्र कहते हैं-याचार ही प्राचार-प्रकल्प कहलाता है "प्राचार एव प्राचारप्रकल्पः ।'
प्राचार्य अभयदेव समवायांग-सूत्र की टीका में कहते हैं कि
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