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भयादि सूत्र
२०१ जीवों को प्राण कहते हैं । वृक्षों को भूत, पञ्चन्द्रिय प्राणियों को जीव तथा शेष सत्र जीवों को सत्त्व कहा गया है। "प्राणा द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रिया, भूताश्च तरवो, जीवाश्च पञ्चन्द्रियाः, सत्वाश्च शेषजीवाः ।"
---भाव विजय कृत उत्तराध्ययन सूत्र टीका २६।१६। विश्व के समस्त अनन्तानन्त जीवों की अाशातना का यह सूत्र बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है । जैन धर्म की करुणा का अनन्त प्रवाह केवल परिचित
और स्नेही जीवों तक ही सीमित नहीं है । अपितु समस्त जीवराशि से क्षमा माँगने का महान् अादर्श है। प्राणी निकट हों या दूर हों स्थूल हों या सूक्ष्म हों, ज्ञात हों या अज्ञात हों, शत्रु हों या मित्र हों किसी भी रूप में हों, उनकी अशातना एवं अवहेलना करना साधक के लिए सर्वथा निषिद्ध है। __यहाँ अाशातना का प्रकार यह है कि अात्मा की सत्ता ही स्वीकार न करना, पृथ्वी ग्रादि दो जड़ मानना, अात्मतत्त्व को क्षणिक कहना, एकेन्द्रिय तथा द्वीन्द्रिय आदि जीवों के जीवन को तुच्छ समझाना, फलतः उन्हें पीड़ा पहुँचाना। काल की आशातना
साधक को समय की गति का अवश्य ध्यान रखना चाहिए। वात्र कैसा काल है ? क्या परिस्थिति है ? इस समय कौन-सा कार्य कतव्य है और कोनसा अकर्तव्य ? एक बार गया हुअा समय फिर लोट कर नहीं आता । समय की क्षति सबसे बड़ी क्षति है | इत्यादि विचार साधक जीवन के लिए बड़े ही महत्त्वपूर्ण हैं । जो लोग आलसी हैं, समय का महत्व नहीं समझते, 'काले कालं समायरे' के स्वर्ण सिद्धान्त पर नहीं चलते, वे साधना-पथ से भ्रष्ट हुए विना नहीं रह सकते।।
इसी भावना को ध्यान में रखकर काल की पाशातना न करने का विधान किया है । काल की अवहेलना बहुत बड़ा पाप है। संयम जीवन की अनियमितता ही काल की अाशातना है ।
प्राचार्य जिनदास पर हरिभद्र आदि का कहना है कि काल है ही
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