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प्रतिज्ञा-सूत्र
२१७ विरय = विरत हूँ
गुच्छ = गोच्छक पडिहय = नाश करने वाला हूँ। पडिग्गह = पात्र के पच्चस्वाय त्याग करने वाला हूँ धारा- धारक हैं पावकम्मो = पापकर्मों का पंच : पाँच अनियाणो= निदान रहित महव्यय = महावत के दिष्टि = सम्यग दृष्टि से
धारा - धारक हैं संपन्नो = युक्र हूँ
अड्तार = अट्ठारह माया = माया सहित
सहस्म = हजार मो१= मृषावाद से
सीलंग =शीलाङ्ग के विवजियो = सर्व था रहित हूँ धारा = धारक हैं अढाइब्जेसु = अढाई
अवय = अक्षत-परिपूर्ण दीव =द्वीप
अायार = प्राचार रूप समुह सुसमुद्रों में
चरित्ता चारित्र के धारक हैं पन्नरससु = पन्दरह
ते = उन कम्मभूमीसु - कर्म भूमियों में मव्वे - सबको जावंत = जितने भी
मिरसा = शिर से केवि = कोई
मणसा-मन से साहू = साधु हैं
मत्थएण-मस्तक से स्यहरण = रजोहरण
वंदामि = वन्दना करता हूँ
भावार्थ भगवान् ऋषभदेव से लेकर भगवान् महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थंकर देवों को नमस्कार करता हूँ। ____ यह निर्ग्रन्थ प्रवचन अथवा प्रावचन ही सत्य है, अनुत्तर :- सर्वोत्तम है, केवल अद्वितीय है अथवा कैवलिक = केवल ज्ञानियों से प्ररूपित है, प्रतिपूर्ण = मोक्षप्रापक गुणों से परिपूर्ण है, नैयायिक-मोन पहुँचाने वाला है अथवा न्याय से अबाधित है, पूर्ण शुद्ध अर्थात् सर्वथा निष्कलंक है, शल्यकर्तन = माया श्रादि शल्यों को नष्ट करने वाला है, सिद्धि
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