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भयादि-सूत्र
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करते हैं-'जीए सुतमधिष्ठितं, तीए प्रासातणा। नस्थि सा, अकिंचिक्करी वा एवमादि ।' अावश्यक चूणि । वाचनाचार्य की आशातना
प्राचार्य और उपाध्याय की अाशातना का उल्लेख पहले पा चुका है । फिर यह वाचनाचार्य कौन है ? श्राचार्य श्री आत्माराम जी महाराज
आदि अव्यापक तथा उपाध्याय अर्थ करते हैं। परन्तु वह ठीक नहीं मालूम होता । सूत्रकार व्यर्थ ही पुनरुक्ति नहीं कर सकते ।
हाँ तो ग्राइए, जरा विचार करें कि यह वाचनाचार्य कौन है ? किंस्वरूप है ? वाचनाचार्य, उपाध्याय के नीचे श्रुतोष्टा के रूप में एक छोटा पद है । उपाध्यायश्री की प्राज्ञा से यह पढ़नेवाले शिष्यों को पाठरूप में केवल श्रु त का उद्देश अादि करता है। प्राचार्य जिनदास और हरिभद्र यही अर्थ करते हैं । 'वायणायरियो नाम जो उवज्झाय-संदिट्ठो उद्देसादि करेति ।' यावश्यक चूगि । व्यत्यानंडित
'वच्चामेलियं' का सस्कृत रूप 'व्यत्यानंडित' होता है । इसका अर्थ हमने शब्दार्थ में, दो-तीन बार बोलना किया है । शून्यचित्त होकर अनवधानता से शास्त्र-पाटों को दुहराते रहना, शास्त्र की अवहेलना है । कुछ प्राचार्य, व्यत्याम्रोडित का अर्थ भिन्न रूप से भी करते हैं। वह अर्थ भी महत्त्वपूर्ण है। 'भिन्न-भिन्न सूत्रों में तथा स्थानों पर आए हुए एक जैसे समानार्थक पदों को एक साथ मिलाकर बोलना' भी व्यत्याम्रोडित है। योग-हीन
योग-हीन का अर्थ मन, वचन और काय योग की चंचलता है। अथवा विना उपयोग के पढ़ना भी योग हीनता है ।
श्री हरिभद्र आदि कुछ प्राचीन प्राचार्य, योग का अर्थ उपधान-तप भी करते हैं । सूत्रों को पढ़ते हुए किया जानेवाला एक विशेष तपश्चरण
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