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समणोऽहं संजय - विरय-पडिय-पच्चक्खाय-पावकम्मो, अनियाणो, दिट्टिसंपन्नो, माया - मोस - विवज्जियो ।
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श्रमण-सूत्र
चड्ढाइज्जेसु दीद
( १ )
जावंत के वि साहू,
समुदे पनरससु कम्मभूमी ।
पावयण == प्रवचन सच्चं = सत्य है
पंचमहव्यय-धारा
= नमस्कार हो
नमो चवीसाए = चौबीस तित्थगराण = तीर्थंकरों को उसभादि = ऋषभ आदि
महावीर = महावीर पज्जवसारणाण = पर्यन्तों को
रयहरण- गुच्छ - पडिग्गह-धारा ।। ( २ )
इणमेव = यह ही निग्गंथ: निर्ग्रन्थों का
अक्खयायारचरिता,
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अड्ढार - सहस्स - सीलंगवारा ।
ते सच्चे सिरसा मासा मत्थरण वंदामि ||
शब्दार्थ
श्रणुत्तरं = सर्वोत्तम है
केवलियं = सर्वज्ञ-प्ररूपित अथवा
श्रद्वितीय है
परिपुगण = प्रतिपूर्ण है
नेप्राउयं = न्यायावाधित है, मोक्ष
ले जाने वाला है
मसुद्ध = पूर्ण शुद्ध है
मल्ल = शल्यों को गत्तण = काटने वाला है
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