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श्रमण-सूत्र
श्रस्वाध्यायिक कह सकते हैं। जिस प्रकार 'पानी जीवन है-इस वाक्य में पानी जीवन रूप कार्य का कारण है स्वयं जीवन नहीं है, फिर भी उसे कारण में का योपचार की दृष्टि से जीवन कहा हैं |
हाँ, तो रक्त, मांस, अस्थि तथा मृत कलेवर श्रादि श्रासपास में हों तो वहाँ स्वाध्याय करना वर्जित है। अतः जहाँ रुधिर श्रादि अस्वाध्यायिक हों अर्थात् अस्वाध्या । के कारण विद्यमान हों, फिर भी वहाँ स्वाध्याय करना, ज्ञानातिचार है। इसी प्रकार स्वाध्यायिक में अर्थात् अस्वाध्याय के कारण न हों, फलतः स्वाध्याय के कारण हो, फिर भी स्वाध्याय न करना ; यह भी ज्ञानातिचार है । श्रस्वाध्यायिक शब्द की उक्त व्याख्या के लिए आचार्य हरिभद्र-कृत आवश्यक सूत्र की शिष्यहिता वृत्ति द्रष्टव्य है । "पा अध्ययनमाध्ययनमाध्यायः । शोभन श्राध्यायः स्वाध्यायः । स्वाध्याय एव स्वाध्यायिकम् । न स्वाध्यायिकमस्वाभ्यायिकं, तत्कारणमपि च रुधिरादि कारणे कार्योपचारात् प्रास्वाध्यायिकमुच्यते।"
श्रास्वाध्यायिक के मूल में दो भेद हैं-यात्म-समुत्थ और परसमुत्थ । अपने व्रण से होने वाले रुधिरादि अात्म-समुत्थ कहलाते हैं । और पर अर्थात् दूसरों से होने वाले पर समुत्थ कहे जाते हैं। आवश्यक नियुक्ति में इन सत्र का बड़े विस्तार से वर्णन किया गया है। आचार्य जिनदास
और हरिभद्रजी ने भी अपनी अपनी व्याख्यानों में इस सम्बन्ध में काफी लम्बी चर्चा की है। अस्वाध्यायों का वर्णन विस्तार से तो नहीं, हाँ, संक्षेप से हमने भी परिशिष्ट में कर दिया है । जिज्ञासु वहाँ देखकर जानकारी प्राप्त कर सकते हैं । प्रतिक्रमण का विराट रूप
पडिकमामि 'एगविहे असंजमे' से लेकर 'तेत्तीसाए श्रासायणाहिं' तक के सूत्र में एक-विध असयम का ही विराट रूप बतलाया गया है । यह सब अतिचार समूह मूलतः असयम का ही पर्याय-समूह है।
१ अस्वाध्याय के कारणों का न होना ही स्वाध्याय का कारण है।
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