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'भयादि-सूत्र
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होने के कारण वह थोड़ा सा अपने योग्य ज्ञानाभ्यास भी नहीं कर सकेगा । यतः गुरु का कर्तव्य है कि यथायोग्य थोड़ा-थोड़ा अध्ययन कराए, ताकि धीरे-धीरे शिष्य की ज्ञान के प्रति अभिरुचि एवं जिज्ञासा बलवती होती चली जाय । अकाल में स्वाध्याय
कालिक और उत्कालिक रूप से शास्त्रों के दो विभाग किए हैं । कालिक श्रुत वे हैं जो प्रथम अन्तिम पहर में ही पढ़े जाते हैं, बीच के पहरों में नहीं । उत्कालिक वे हैं, जो चारों ही प्रहरों में पढ़ें जा सकते हैं । वस्तु, जिस शास्त्र का जो काल नहीं है उसमें उस शास्त्र का स्वाध्याय 'करना ज्ञानातिचार है । इसी प्रकार नियत काल में स्वाध्याय न करना भी अतिचार है ।
ज्ञानाभ्यास के लिए काल का ध्यान रखना अत्यन्त आवश्यक है । बेमौके की रागिनी अच्छी नहीं होती । यदि शास्त्राध्ययन करता हुआ कालादि का ध्यान न रक्खेगा तो कब तो प्रतिलेखना करेगा ? कब गोत्र - चर्या के लिए जायगा ? कब गुरुजनों की सेवा का लाभ लेगा ? कालातीत अध्ययन कुछ दिन ही चलेगा, फिर अन्त में वहाँ भी उत्साह ठंडा पड़ जायगा । शक्ति से अधिक प्रयत्न करना भी दोष है । इसी प्रकार शक्ति के अनुकूल प्रयत्न न करना भी दोष है । स्वाध्याय का समय होते हुए भी आलस्यवश या किसी अन्य अनावश्यक कार्य में लगा रहकर जो साधक स्वाध्याय नहीं करता है, वह ज्ञान का अनादर करता है - अपमान करता है । वह दिव्य ज्ञान-प्रकाश के लिए द्वार बन्द कर ज्ञानान्धकार को निमन्त्रण देता है ।
अस्वाध्यायिक में स्वाध्यायित
शीर्षक के शब्द कुछ नवीन से प्रतीत होते हैं । परन्तु नवीनता कुछ नहीं है | स्वाध्याय को ही स्वाध्यायिक कहते हैं और स्वाध्याय को स्वाध्यायिक | कारण में कार्य का उपचार हो जाता हैं । श्रतः Faraara ar arध्याय के कारणों को भी क्रमशः स्वाध्यायिक तथा
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