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भयादि-सूत्र
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प्रति ज्ञात या अज्ञात रूप से की जाने वाली अवज्ञा के लिए, पश्चाताप करना होता है-मिच्छामि दुक्कडं देना होता है।
अन्य धर्मों में प्रायः स्त्री का स्थान बहुत नीचा माना गया है। कुछ धर्मों में तो स्त्री साध्वी भी नहीं बन सकती। वह मोक्ष भी नहीं प्राप्त कर सकती। उसे स्वतन्त्र रूप से यज्ञ, पूजा आदि के अनुष्ठान का भी अधिकार नहीं है । कुछ लोग उसे शूद्र, और कुछ शूद्र से भी निंद्य समझते हैं। उन्हें वेदादि पढ़ने का भी अधिकार नहीं है । परन्तु जैनधर्म में स्त्री को पुरुष के बराबर ही धर्म कार्य का अधिकार है, मोक्ष पाने का अधिकार है। जैन-धर्म किसी विशेष वेष-भेद और स्त्री पुरुष
आदि के लिंग-भेद के कारण किसी को ऊँचा नीचा नहीं समझता, किसी की स्तुति-निंदा नहीं करता। जैन धर्म गुण पूजा का धर्म है । गुण हैं तो स्त्री भी पूज्य है, अन्यथा पुरुष भी नहीं। अतएव गृहस्थ-स्थिति में रहती हुई स्त्री, यदि धर्माराधन करती है-श्रावक-धर्म का पालन - करती है, तो वह स्तुति योग्य है, निन्दनीय नहीं ।
यही कारण है कि प्रस्तुत सूत्र में श्राविका की अवहेलना करने का भी प्रतिक्रमण है । श्राविका गृह कार्य में लगी रहती हैं, प्रारम्भ में ही जीवन गुज़ारती हैं, बाल-बच्चों के मोह में फँसी रहती हैं, उनकी सद्गति कैसे होगी? 'श्रारंभताणं कतो सोग्गती ?' इत्यादि श्राविकाओं की अवहेलना है, जो त्याज्य है। साधक को 'दोष दृष्टिपरं मनः' नहीं होना चाहिए । देव और देवियों को आशातना
देवताओं की अाशातना से यह अभिप्राय है कि देवताओं को कामगर्दभ कहना, उन्हें आलसी और अकिंचित्कर कहना । देवता मांस खाते हैं, मद्य पीते हैं इत्यादि निन्दास्पद सिद्धान्तों का प्रचार करना । __ साधु और श्रावकों के लिए देव-जगत के सम्बन्ध में तटस्थ मनोवृत्ति रखना ही श्रेयस्कर है । देवताओं का अपलाप एवं अवर्णवाद करने से साधारण जनता को, जो उनकी मानने वाली होती है, व्यर्थ ही कष्ट • पहुँचता है, बुद्धि भेद होता है, और साम्प्रदायिक संघर्ष भी बढ़ता है ।
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