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श्रमण-सूत्र
याता है । वे जगजीवों के लिए धर्म का उपदेश करते हैं, सन्मार्ग का निरूपण करते हैं और अनन्तकाल से अन्धकार में भटकते हुए जीवों को सत्य का प्रकाश दिखलाते हैं । ग्रतः उपकारी होने से सर्व प्रथम उनकी ही महिमा का उल्लेख है ।
आजकल हमारे यहाँ भारतवर्ष में अरिहन्त विद्यमान नहीं हैं, ग्रतः उनकी शातना कैसे हो सकती है ? समाधान है कि अरिहन्तों की कभी कोई सत्ता ही नहीं रही है, उन्होंने निर्दय होकर सर्वथा अव्यवहार्यं कठोर निवृत्ति प्रधान धर्म का उपदेश दिया है, वीतराग होते हुए भी स्वर्णसिंहासन आदि का उपयोग क्यों करते हैं ? इत्यादि दुर्विकल्प करना अरिहंतों की श्राशातना है ।
सिद्धों की प्रशातना
सिद्ध हैं ही नहीं । जब शरीर ही नहीं है तो फिर उनको सुन किस बात का ? संसार से सर्वथा अलग निश्चे पड़े रहने में क्या आदर्श है ? इत्यादि रूप में अवज्ञा करना, सिद्धों की ग्राशातना है । साध्वियों को अशातना
स्त्री होने के कारण साध्वियों को नीच बताना | उनको कलह श्रौर संघर्ष की जड़ कहना । साधुनों के लिए साध्वियाँ उपद्रव रूप हैं | ऋतुकाल में कितनी मलिनता होती होगी ? इत्यादि रूप से अवहेलना करना, साध्वियों की आशातना है ।
श्राविकाओं की आशातना
जैन धर्म ती उदार और विराट धर्म है । यहाँ केवल अरिहन्त श्रादि महान् श्रात्मानों का ही गौरव नहीं है । ग्रपितु साधारण गृहस्थ होते हुए भी जो स्त्री-पुरुष श्रावक-धर्म का पालन करते हैं, उनका भी यहाँ गौरवपूर्ण स्थान है | श्रावक और श्राविकाओं की अवज्ञा करना भी एक पाप है । प्रत्येक आचार्य, आध्याय और साधु को भी, प्रति दिन प्रातः और सायंकाल प्रतिक्रमण के समय, श्रावक एवं श्राविकाओं के
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