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भयादि-सूत्र
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( १ ) एक मास का प्रायश्चित ( २ ) एक मास पाँच दिन का प्रायश्चित ( ३ ) एक मास दश दिन का प्रायश्चित्त । इसी प्रकार पाँच दिन बढ़ाते हुए पाँच मास तक कहना चाहिए । इस प्रकार २५ हुए । (२६ उपघातक (२७) रोपण और (२८) कृत्स्न सम्पूर्ण',
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अकृत्स्न-ग्रस ंपूर्ण' ।”
पूज्यश्रीजी के उपर्युक्त लेख की समवायांग सूत्र के मूल पाठ से संगति नहीं बैठती । वहाँ मासिक श्रारोपण के छह भेद किए हैं । इसी प्रकार द्विमासिकी, त्रिमासिकी एवं चतुर्मासिकी श्रारोपणा के भी क्रमशः छः छः भेद होते हैं । सब मिलकर रोपण के अवतक २४ भेद हुए, हैं, जिन्हें पूज्यश्रीजी २५ लिखते हैं । अब शेष चार भेद भी समवायांग सूत्र के मूल पाठ में ही देख लीजिए 'उवघाइया आरोवणा, अणुत्र घाइया श्रावणा, कसिणा श्रारोवणा, अकसिया आरोवणा । 'उक्त मूल सूत्र के प्राकृत नामों का संस्कृत रूपान्तर है - उपघातिक आारोपणा, अनुपघातिकारोपण कृत्स्न श्रारोपण और कृत्स्न श्रावणा ।
जो कुछ हमने ऊपर लिखा है, इसका समर्थन, समवायांग के मूल पाठ और अभयदेव - कृत वृत्ति से स्पष्टतः हो जाता है । अस्तु, हम विचार में हैं कि आचार्य श्री जी ने प्रथम के २४ भेदों को २५ कैसे गिन लिया ? और बाद के चार भेदों के तीन ही भेद बना लिए । प्रथम के दो भेदों को मिलाकर एक भेद कर लिया । और आरोपणा, जो कि स्वयं कोई भेद नहीं है, प्रत्युत सब के साथ विशेष्य रूप से व्यवहृत हुआ है, उसको सत्ताईसवें भेद के रूप में स्वतन्त्र भेद मान लिया है । और अन्तिम दो भेदों का फिर अट्ठाईसवें भेद के रूप में एकीकरण कर दिया गया है। इस सम्बन्ध में अधिक न लिखकर सं क्षेत्र में केवल विचार सामग्री उपस्थित की है, ताकि सत्यार्थ के निर्णय के लिए तत्त्वजिज्ञासु कुछ विचार-विमर्श कर सकें ।
याचार प्रकल्प के २८ अध्ययनों में वर्णित साध्वाचार का सम्यक रूप से आचरण न करना, अतिचार है ।
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