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श्रमण-सूत्र
( २२ ) श्राचार्य तथा उपाध्याय की सेवा न करना :
( २३ ) बहुश्रुत न होते हुए भी बहुश्रुत = पण्डित कहलाना । ( २४ ) तपस्वी न होते हुए भी अपने को तपस्वी कहना |
( २५ ) शक्ति होते हुए भी अपने श्राश्रित वृद्ध, रोगी आदि की सेवा न करना ।
(२६) हिंसा तथा कामोसादक विकथाद्यों का बार-बार प्रयोग करना । (२७) जादू टोना आदि करना ।
( २८ ) कामभोग में अत्यधिक लिप्त रहना, ग्रासक्त रहना ।
( २६ ) देवताओं की निन्दा करना ।
( ३० ) देवदर्शन न होते हुए भी प्रतिष्ठा के मोह से देवदर्शन की बात कहना ।
[ दशाश्रुत स्कन्ध ] जैन धर्म में आत्मा को श्रावृत करने वाले आठ कर्म माने गए हैं । सामान्यतः आठों ही कर्मों को मोहनीय कर्म कहा जाता है । परन्तु विशेषतः चतुर्थ कर्म के लिए मोहनीय संज्ञा रूढ़ है । प्रस्तुत सूत्र में इसी से ताल है । श्राचार्य हरिभद्र आवश्यक वृत्ति में लिखते हैं"सामान्येन एकप्रकृति कर्म मोहनीयमुच्यते । उक्तं च श्रट्ठविहंपिय कम्मं, भणियं मोहों त्ति जं समासेयमित्यादि । विशेषेण चतुर्थी प्रकृतिमहनीयमुच्यते तस्य स्थानानि -- निमित्तानि भेदाः पर्याया मोहनीयस्थानानि ।”
मोहनीय कर्मबन्ध के कारणों की कुछ इयत्ता नहीं है । तथापि शास्त्रकारों ने विशेष रूप से मोहनीय कर्मबन्ध के हेतु-भूत कारणों के तीस भेदों का उल्लेख किया है । उल्लिखित कारणों में दुरध्यवसाय की तीव्रता एवं क्रूरता इतनी अधिक होती है कि कभी-कभी महामोहनीय कर्म का बन्ध हो जाता है, जिससे अज्ञानी आत्मा सत्तर कोड़ा-कोड़ी सागर तक स ंसार में परिभ्रमण करता है, दुःख उठाता है ।
प्रस्तुत सूत्र के मूल पाठ में प्रचलित महामोहनीय शब्द का प्रयोग किया है | परन्तु आचार्य हरिभद्र और जिनदास महत्तर केवल मोहनीय शब्द
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