________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
१६८
श्रमण-सूत्र
(१) आजीवभय-दुर्भिक्ष अादि में जीवन-यात्रा के लिए भोजन आदि की अप्राप्ति के दुविकल्प से डरना । . ( ६ ) मरणाभय-मृत्यु से डरना । (७) अश्लोकभय-अपयश की आशंका से डरना । उक्त सात भय समवायांग-सूत्र के अनुसार हैं।
भय मोहनीय कर्म के उदय से होने वाले श्रात्मा के उद्वेगरूप परिणाम विशेष को भय कहते हैं। उसके उपर्युक्त सात स्थान-कारण हैं । साधु को किसी भी भय के. अागे अपने आपको नहीं झुकाना चाहिए । निर्भय होने का अर्थ है--'न स्वयं भयभीत होना और न किसी दूसरे को भयभीत करना ।' भय के द्वारा संयम-जीवन दूषित होता है, तदर्थं भय का प्रतिक्रमण किया जाता है । आठ मद स्थान'
(१) जातिमद-ऊँची और श्रेष्ठ जाति का अभिमान ! ... (२) कुलमद-ऊँचे कुल का अभिमान ।
(३) बलमद-अपने बल का घमण्ड करना । १ 'स्थान' शब्द का अर्थ हेतु अर्थात् कारण किया है। अतः जाति, कुल आदि जो बाट मद के कारण हैं, मैं उनका प्रतिक्रमण करता हूँ। अभयदेव समवायांग-सूत्र की टीका में स्थान शब्द का अर्थ अाश्रय अर्थात् अाधार-कारण करते हैं । 'मदस्य-अभिमानस्य स्थानानि = श्राश्रयाः मदस्थानानि जात्यादीनि ।'—समवायांग वृत्ति ।
श्राचार्य जिनदास स्थान का अर्थ 'पर्याय अर्थात् भेद' करते हैं । "मदो नाम मानोदयादात्मोकर्षपरिणामः । स्थानानि-तस्यैव पर्याया भेदाः। "तानि च अष्टौ-जातिमद, कुलमद, बलमद""
-आवश्यक-चूणि श्राचार्य जिनदास के उक्त अभि गाय को हरिभद्र पार अभयदेव भी स्वीकार करते हैं।
For Private And Personal