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श्रमण-सूत्र
करे । आधा पेट अन्न से भरे, प्राधे में से दो भाग पानी के लिए और एक भाग हवा के लिए छोड़ दे ।
(६) विभूषा-परिवर्जन-अपने शरीर की विभूपा = सजावट न करे।" - ब्रह्म का अर्थ 'परमात्मा' है। श्रात्मा को परमात्मा बनाने के लिए जो चर्या = गमन किया जाता है, उसका नान ब्रह्मचर्य है । शारीरिक
और आध्यात्मिक सभी शक्तियों का प्राधार ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए नौ बाते श्रावश्यक हैं, वे नौ ही गुप्तिपद वाच्य हैं। स्त्रियों को ब्रहाचर्य की रक्षा के लिए उपयुक्त वर्णन में स्त्री के स्थान में पुरुष समझना चाहिए।
यदि साधना करते हुए कहीं भी प्रमादवश नौ गुप्तियों का अतिक्रमण किया हो, अर्थात् प्रतिषिद्ध कार्यो का अाचरण किया हो तो उसका प्रस्तुत सूत्र के द्वारा प्रतिक्रमण किया जाता है।
१ यह गुप्तियों का वर्णन, उत्तराध्ययन-सूत्र के १६ वें अध्ययन के अनुसार किया गया है। परन्तु समवायांग सूत्र में गुप्तियों का उल्लेख अन्य रूप में किया है । कहाँ क्या भेद है, यहाँ सक्षेप में बताया जाता हैं।
समवायांग सूत्र में तीसरी गुप्ति, स्त्रियों के समुदाय के साथ निकट सम्पर्क रखना है । 'नो इत्थीण गणाई सेवित्ता भवइ, ३ ।'
समवायांग सूत्र में प्रणीतरस भोजन त्याग और अति भोजन त्याग गुप्ति की सख्या क्रमशः पाँचवीं तथा छठी है। पूर्वभोग-स्मरण का त्याग तथा शब्द-रूपानुपातिता श्रादि का त्याग सातवे और आठवे नंबर पर है।
समवायांग सूत्र में, नौवीं गुप्ति का स्वरूप, सांसारिक सुखोपभोग की पासक्ति का त्याग है । यह विभूषानुवादिता से अधिक व्यापक है। किसी भी प्रकार के सुखोपभोग की कामना अब्रह्मचर्य है। 'नो साया-सोक्खपडिबद्धे या वि भवइ ४ । ३ ।' समवायांग सूत्र नवम समवाय ।
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