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भयादि-सूत्र
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प्राचार्य जिनदास. शौच का अर्थ “धर्मोपकरण में भी अनासक्त भावना' करते हैं । 'सोयं अलुद्धा धम्मोवगरणेसु वि ।' अकिंचनत्व का अर्थं, अपने देहादि में भी निःसगता रखना, किया है । 'नस्थि जस्स किंचण' सो अकिंचणो, तस्स भावो आकिंचणियं।"सदेहादिसु वि निस्संगेण भवितव्य ।' आवश्यक चूणि
दशविध श्रमण धर्म में मूल और उत्तर दोनों ही श्रमण-गुणों का समावेश हो जाता है। संयम = प्राणातिपात विरति, सत्य =मृषावाद विरति, अकिंचनत्व = अदत्तादान और परिग्रह से विरति, ब्रह्मचर्यमैथुन से विरति । ये पंचमहाव्रत रूप मूल गुण हैं। क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, और तप-ये सब उत्तर गुण हैं |
आध्यात्मिक साधना में अहर्निश श्रम करने वाले सर्ववित साधक को श्रमण कहते हैं । श्रमण के धर्म श्रमण-धर्म कहलाते हैं । उक्त दश विध मुनिधर्मों की उचित श्रद्धा, प्ररूपणा तथा आसेवना न की हो तो तजन्य दोपों का प्रतिक्रमण किया जाता है । ग्यारह उपासक प्रतिमा ___ (१) दर्शन प्रतिमा--किसी भी प्रकार का राजाभियोग प्रादि श्रागार न रखकर शुद्ध, निरतिचार, विधिपूर्वक सम्यग्दर्शन का पालन करना । यह प्रतिमा व्रतरहित दर्शन श्रावक की होती है । इसमें मिथ्यात्व रूप कदाग्रह का त्याग मुख्य है । 'सम्यगदरीनस्य शङ्कादिशल्यरहित स्य अणुव्रतादिगुण विकलस्य योऽभ्युपगमः । सा प्रतिमा प्रथमेति ।' अभयदेव, समवायांग वृति । इस प्रतिमा का अाराधन एक मास तक किया जाता है। .
(२) व्रत प्रतिमा-व्रती श्रावक सम्यक्त्व लाभ के बाद व्रतों की साधना करता है । पाँच अणुव्रत आदि व्रतों की प्रतिज्ञाओं को अच्छी तरह निभाता है, किन्तु सामायिक का यथासमय सम्यक् पालन नहीं कर पाता । यह प्रतिमा दो मास की होती है ।
(३) सामायिक प्रतिमा-इस प्रतिमा में प्रातः और सायंकाल
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