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श्रमण-सूत्र
( ११ ) यह प्रतिमा अहोरात्र की होती है । एक दिन और एक रात अर्थात् ठ प्रहर तक इसकी साधना की जाती है । चौविहार बेले के द्वारा इसकी आराधना होती है । नगर के बाहर दोनों हाथों को घुटनों की और लम्बा करके दण्डायमान रूप में खड़े होकर कायोत्सर्ग किया जाता है।
( १२ ) यह प्रतिमा एक रात्रि की है । अर्थात् इसका समय केवल एक रात है । इसका आराधन बेले को बढ़ाकर चौविहार तेला करके किया जाता है । गाँव के बाहर खड़े होकर, मस्तक को थोड़ा-सा झुकाकर एक पुद्गल पर दृधिरखकर, निर्निमेष नेत्रों से निश्चलतापूर्वक कायोत्सर्ग किया जाता है । उपसर्गों के आने पर उन्हें समभाव से सहन किया जाता है ।
भिक्षु प्रतिमाओं के सम्बन्ध में कुछ मान्यताएँ भिन्न-भिन्न धारा पर चल रही हैं । प्रथम से लेकर सात तक प्रतिमाओं का काल, कुछ विद्वान क्रमशः एक-एक मास बढ़ाते हुए सात मास तक मानते हैं । उनकी मान्यता द्विमासिकी आदि यथाश्रुत शब्द के आधार पर है। आठवीं, नौवीं, दशवीं में कुछ आचार्य केवल निर्जल चौविहार उपवास ही एकान्तर रूप से मानते हैं । दशाश्रुत स्कन्ध सूत्र, अभयदेवकृत समवायांग — टीका, हरिभद्रकृत यावश्यक टीका में भी उक्त तीनों प्रतिमाओं में चौविहार उपवास का ही उल्लेख है । और भी कुछ अन्तर हैं. किन्तु समयाभाव से तथा साधनाभाव से यहाँ अधिक विस्तार में न जाकर साधारण-सा परिचय मात्र दिया है । कहीं प्रसंग आया तो इस पर विशद स्पष्टीकरण करने की इच्छा है । दशा श्रुत स्कन्ध, भगवती-सूत्र, हरिभद्र सूरि का पंचाशक यदि इस सम्बन्ध में द्रष्टव्य हैं ।
बारह भिक्षु प्रतिमानों का यथाशक्ति याचरण न करना, श्रद्धा न करना तथा विपरीत प्ररूपणा करना, अतिचार है । तेरह क्रिया-स्थान
( १ ) अर्थक्रिया अपने किसी अर्थ प्रयोजन के लिए त्रस स्थावर जीवों की हिंसा करना, कराना तथा अनुमोदन करना । 'अर्थाय क्रिया अर्थ क्रिया ।'
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