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भयादि-सूत्र
१६६ ( ४ ) रूपमद-अपने रूप, सौन्दर्य का गर्व करना । (५) तपमद-उग्र तपस्वी होने का अभिमान । (६) श्रुतमद-शास्त्राभ्यास का अर्थात् पण्डित होने का अभिमान ।
(७) लाभमद-अभीट वस्तु के मिल जाने पर अपने लाभ का अहंकार । (८) ऐश्वर्यमद-अपने ऐश्वर्य अर्थात् प्रभुत्व का अहंकार ।
ये अाठमद समवायांग-सूत्र के उल्लेखानुसार हैं।
मान मोहनीय कर्म के उदय से जन्य ये आठों ही मद सर्वथा त्याज्य हैं । यदि कभी प्रमादवश पाठों मदों में से किसी भी मद का श्रासेवन कर लिया गया हो तो तदर्थ हार्दिक प्रतिक्रमण करना उचित है। नौ ब्रह्मचर्य-गुप्ति
(१) विविक्र-वसति-सेवन-स्त्री, पशु और नपुसकों से युक्त स्थान में न ठहरे।
(२) स्त्री कथा परिहार-स्त्रियों की कथा वार्ता, सौन्दर्य अादि की चर्चा न करे।
(३) निषद्यानुपक्शन-स्त्री के साथ एक ग्रासन पर न बैठे, उसके उठ जाने पर भी एक मुहूतं तक उस श्रासन पर न बैठे।
(४) स्त्री-अंगोपांगादर्शन-स्त्रियों के मनोहर अंग उपांग न देखे । यदि कभी अकस्मात् दृष्टि पड़ जाय तो महसा हटा ले, फिर उसका ध्यान न करे ।
(५) कुझ्यान्तर-शब्दश्रवणादि-वर्जन-दीवार आदि की आड़ से स्त्री के शब्द, गीत, रूप आदि न सुने और न देखे ।
(६) पूर्व भोगाऽस्मरण-पहले भोगे हुए भोगों का स्मरण न करे। . (७) प्रणीत भोजन-त्याग-विकारोवादक गरिष्ठ भोजन न करे ।
(८) अतिमात्रभोजन-त्याग-रूखा-सूवा भोजन भी अधिक न
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