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भयादि-सूत्र
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ध्याय की स्थिति में स्वाध्याय किया हो; स्वाध्यायिकेऽस्वाध्यायित: स्वाध्याय की स्थिति में स्वाध्याय न किया हो - उक्त प्रकार से श्रुत ज्ञान की चौदह शातनाओं से, सब मिला कर तेतीस श्राशातनाओं से जो भी प्रतिचार लगा हो उसका दुष्कृत = पाप मेरे लिए मिथ्या हो । विवेचन
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प्रस्तुत -सूत्र बहुत ही संक्षिप्त भाषा में, गंभीर अर्थों की सूचना देता है । भय से लेकर श्राशातना तक के बोल कुछ उपादेय हैं, कुछ ज्ञेय हैं, कुछ हेय हैं | यदि इसी प्रकार हेय, ज्ञेय, उपादेय पर दृष्टि रखकर जीवन को साधना पथ पर प्रगतिशील बनाया जाय तो श्रवश्य ही उत्तराध्ययन सूत्र के अमर शब्दों में वह संसार के बन्धन में नहीं रह सकता | 'से न अच्छइ मंडले ।'
इसके विपरीत आचरण करने से अर्थात् हेय को उपादेय, उपादेय को हेय और ज्ञेय को ज्ञेय रूप समझने से एवं तदनुकूल प्रवृत्ति करने से अवश्य ही श्रात्मा कर्म बन्धनों में बँध जाता है । ऊँचे से ऊँचा साधक भी राग-द्वेष की मलिनता के चक्कर में आकर पतित हुए बिना नहीं रह सकता । प्रस्तुत सूत्र में इसी विपरीत श्रद्धा, प्ररूपणा तथा आचरण की आलोचना एवं प्रतिक्रमण करने का विधान है ।
सात भयस्थान
इहलोक -
( १ ) इहलोकभय अपनी ही जाति के प्राणी से डरना, भय है । जैसे मनुष्य का मनुष्य से, तिर्यचका तिर्यच से डरना | ( २ ) परलोकभय - दूसरी जाति वाले प्राणी से डरना, परलोक भय है | जैसे मनुष्य का देव से या तिर्येच आदि से डरना ।
(३) आदानभय - अपनी वस्तु की रक्षा के लिए चोर आदि से
डरना ।
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( ४ ) अकस्मादुभय - किसी बाह्य निमित्त के विना अपने आप ही सशंक होकर रात्रि आदि में अचानक डरने लगना ।